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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४३१ समवदानकर्म - जीव आठ प्रकार के, सात प्रकार के या छह प्रकार के कर्मों को ग्रहण करने के लिए प्रवृत होता है; इसलिए यह सब समवदानकर्म है। समवदान का अर्थ विभाग करना है । जीव मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगसे निमित्त से कर्मों को 1 ज्ञानावरणादि रूप से आठ, सात या छह भेद करके ग्रहण करता है, इसलिए इसे समवदानकर्म कहते हैं; यह उक्त कथन का तात्पर्य है । अधः कर्म – जीव अंगछेदन, परिताप और आरम्भ आदि नाना कार्य करता है । उसमें भी ये कार्य औदारिकशरीर के निमित्त से होते हैं, इसलिए उसकी अधः कर्म संज्ञा है । यद्यपि नारकियों के वैक्रियिक शरीर द्वारा भी ये कार्य देखे हैं, पर वहां इनका फल जीववध नहीं दिखाई देता । इसीलिए औदारिकशरीर की ही यह संज्ञा है । ईर्यापथकर्म - ईर्या अर्थात् केवल योग के निमित्त से जो कर्म होता है वह ईर्यापथकर्म कहलाता है । यह ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक होता है, क्योंकि केवल योग इन्हीं गुणस्थानों में उपलब्ध होता है । यहां वीरसेन स्वामी ने तीन पुरानी गाथाओं को उद्धृत कर ईर्यापथकर्म का अति सुन्दर विवेचन करते हुए लिखा है कि ईर्यापथकर्म अल्प है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अल्प अर्थात् एक समय तक ही रुकते हैं । वह बादर है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्मपुद्गल बहुत होते हैं। यहां यह कथन वेदनीय कर्म की मुख्यता से किया है। वह मृदु है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म कर्कश आदि गुणों से रहित होते हैं । वह रूक्ष है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म रूक्ष गुणयुक्त होते हैं । वह शुक्ल है, क्योंकि इसके द्वारा गृहीत कर्म अन्य वर्ण से रहित एक मात्र शुक्ल रूप को लिए हुए होते हैं । वह मन्द्र है, क्योंकि वह सातारूप परिणाम को लिए हुए होता | वह महाव्ययवाला है, क्योंकि यहां असंख्यातगुणी निर्जरा देखी जाती है । वह सातारूप है, क्योंकि वहां भूख-प्यास आदि की बाधा नहीं देखी जाती । वह गृहीत होकर भी अगृहीत है, बद्ध होकर भी अबद्ध है, स्पृष्ट होकर भी अस्पृष्ट है, उदित होकर भी अनुदित है, वेदित होकर भी अवेदित है, निर्जरावाला होकर भी एक साथ निर्जरावाला नहीं है, और उदीरित होकर भी अनुदीरित है । कारण का निर्देश वीरसेन स्वामी ने किया ही है। — तपःकर्म • रत्नत्रय को प्रगट करने के लियेजो इच्छाओं का निरोध किया जाता है वह तप कहलाता है। इसके बारह भेद हैं- छह अभ्यन्तर तप और छह बाह्म तप । बाह्म तपों में पहला अनशन तप है। इसे अनेषण भी कहते हैं । विवक्षित दिन या कई दिन या कई दिन तक किसी प्रकार का आहार न लेना अनशन तप है । स्वाभाविक आहार से कम
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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