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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका . २. कर्मअनुयोगद्वार - कर्म का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है क्रिया । निक्षेपव्यवस्था के अनुसार इसके नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध:कर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म, क्रियाकर्म
और भावकर्म ये दस भेद हैं । साधारणत: कर्म का कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता आदि सोलह अनुयोगद्वारों का आलम्बन लेकर विचार किया जाता है । यहां सर्वप्रथम कर्मनिक्षेप के दस भेद गिनाकर किस कर्म को कौन नय स्वीकार करता है, यह बतलाया गया है । इसके बाद प्रत्येक निक्षेप के स्वरूप पर प्रकाश डालागया है । नय के पांच भेद पहले लिख आये हैं। उनमें से नैगमनय, व्यवहारनय और संग्रहनय सब कर्मों को विषय करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापनाकर्म के सिवा शेष नौ कर्मों को स्वीकार करता है । तथा शब्दनय नामकर्म और भावकर्म को ही स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है ।
नामकर्म और स्थापनाकर्म सुगम हैं। जीव या अजीवका 'कर्म' ऐसा नाम रखना नामकर्म है । काष्ठकर्म आदि में तदाकार या अतदाकार कर्म की स्थापना करना स्थापनाकर्म
द्रव्यकर्म – जिस द्रव्य की जो सद्भाव क्रिया है। उदाहरणार्थ - ज्ञान-दर्शन रूप से परिणमन करना जीव द्रव्य की सुद्भाव क्रिया है । वर्ण, गन्ध आदि रूप से परिणामन करना पुद्गल द्रव्य की सद्भाव क्रिया है । जीवों और पुगलों के गमनागमन में हेतु रूप से परिणमन करना धर्म द्रव्य की सद्भाव क्रिया है । जीवों और पुद्गलों के स्थित होने के हेतुरूप से परिणमन करना अधर्म द्रव्य की सद्भाव क्रिया है । सब द्रव्यों के परिणमन में हेतु होना काल द्रव्य की सद्भाव क्रिया है । अन्य द्रव्यों के अवकाशदानरूप से परिणमन करना आकाश द्रव्य की सद्भाव क्रिया है । इस प्रकार विवक्षित क्रिया रूप से द्रव्यों के परिणमन का जो स्वभाव है वह सब द्रव्यकर्म है।
प्रयोगकर्म - मनः प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म के भेद से प्रयोगकर्म तीन प्रकार का है। मन, वचन और काय आलम्बन हैं । इनके निमित्त से जो जीव का परिस्पंद होता है उसे प्रयोगकर्म कहते हैं । मन:प्रयोगकर्म और वचनप्रयोग कर्म में से प्रत्येक सत्य, असत्य, उभय और अनुभय के भेद से चार प्रकार का है । कायप्रयोगकर्म
औदारिक शरीर कायप्रयोगकर्म आदि के भेद से सात प्रकार का है । यह तीनों प्रकार का प्रयोग कर्म यथासम्भव संसारी जीवों के और सयोगी जिनके होता है।