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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ४२९ विवक्षा नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अन्य रूप आदि गुणों का भी स्पर्श लेना पड़ेगा। किन्तु सूत्र में स्पर्शस्पर्श से कर्कश आदि आठ प्रकार के स्पर्श का ही ग्रहण किया है । इससे स्पष्ट है कि यहां कर्कश आदि का परस्पर स्पर्श विवक्षित नहीं है। ___ कर्मस्पर्श – ज्ञानावरण आदि के भेद से कर्म आठ प्रकार के हैं। इनका तथा इनके विस्रसोपचयों का जीव के साथ जो सम्बन्ध है वह सब कर्मस्पर्श कहलाता है। ज्ञानावरणादि कुल कर्म आठ हैं। इनमें से प्रत्येक कर्म का अपने साथ व अन्य कर्मों के साथ सम्बन्ध है, अत: कुल चौंसठ भंग होते हैं। उनमें से पुनरुक्त २८ भंगों को कम कर देने पर ३६ अपुनरुक्त भङ्ग शेष रहते हैं। बन्धस्पर्श - औदारिकशरीर का औदारिकशरीर के साथ, तथा इसी प्रकार अन्य शरीरों का अपने-अपने साथ जो स्पर्श होता है उसे बन्धस्पर्श कहते हैं। कर्म का कर्म और नोकर्म के साथ तथा नोकर्म और कर्म के साथ स्पर्श होता है, यह दिखलाने के लिए कर्मस्पर्श और बन्धस्पर्श को द्रव्यस्पर्श से अलग कहा है । इस बन्धस्पर्श के कुल भङ्ग २३ हैं। उनमें से ९ पुनरुक्त भङ्ग अलग कर देने पर १४ अपुनरुक्त भङ्ग शेष रहते हैं । वीरसेन स्वामी ने इनका अलग से निर्देश किया ही है। भव्यस्पर्श – जो आगे स्पर्श करने योग्य होंगे, परन्तु वर्तमान में स्पर्श नहीं करते, वह भव्यस्पर्श कहलाता है । मूल सूत्र में इसके कुछ उदाहरण इस प्रकार दिए हैं - विष, कूट, यन्त्र, पिंजरा, कन्दक और जाल आदि तथा इनको करनेवाले और इन्हें इच्छित स्थान में रखने वाले । यद्यपि इनका वर्तमान में अन्य पदार्थ से स्पर्श नहीं हो रहा है, पर आगे होगा; इसलिए इसकी भव्यस्पर्श संज्ञा है । भावस्पर्श - स्पर्शविषयक शास्त्र का जानकार और वर्तमान में उसके उपयोगवाला जीव भावस्पर्श कहलाता है । जो स्पर्शविषयक शास्त्र का ज्ञाता नहीं है, परन्तु स्पर्शरूप उपयोग से उपयुक्त है, उसकी भी भावस्पर्श संज्ञा है । अथवा जीव और पुद्गल आदि द्रव्यों के जो ज्ञान आदि भाव होते हैं उनके सम्बन्ध को भी भावस्पर्श कहते हैं। इस प्रकार ये कुल १३ स्पर्श हैं । इनमें से इस शास्त्र में कर्मस्पर्श से ही प्रयोजन है, क्योंकि यह शास्त्र आध्यात्मविद्या का विवेचन करता है, इसलिए यहां अन्य स्पर्श नहीं लिए गये हैं और न स्पर्शनामविधान आदि अन्य अनुयोगद्वारों का आलम्बन लेकर उनका विचार ही किया है । उसमें भी कर्म का विवेचन वेदना आदि अनुयोगद्वारों में विस्तार के साथ किया है, इसलिए यहां उसका भी कर्मस्पर्शनयविभाषणता आदि अनुयोगद्वारों का आलम्बन लेकर विचार नहीं किया है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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