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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४२४ संग्रह और व्यवहारनय की अपेक्षा बतलाया है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तरायकर्म की वेदना कथंचित् स्थित है कथंचित् अस्थित है और कथंचित् स्थितास्थित है। तथा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म की वेदना कथंचित् स्थित है, कथंचित् अस्थित् है और कथंचित स्थितअस्थित है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा विवेचन करते हुए बतलाया है कि आठों कर्मों की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् अस्थित है । तथा शब्द की अपेक्षा सब कर्मों की वेदना अवक्तव्य है, यह बतलाया गया है। १२. वेदनाअन्तरविधान
___ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध होने पर वे उसी समय फल देते हैं या कालान्तर में फल देते हैं, इस विषय का विवेचन करने के लिए वेदनाअन्तरविधान अनुयोगद्वार आया है । इसमें बतलाया है कि नैगम और व्यवहारनय की अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदना अनन्तरबन्ध है, परम्पराबन्ध है और तदुभयबन्ध है । संग्रहनय की अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदना अनन्तरबन्ध है और परम्पराबन्ध है । ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा आठों कर्मों की वेदना परम्पराबन्ध है और शब्दनय की अपेक्षा आठों कर्मों की वेदना अवक्तव्यबन्ध
है।
१३. वेदनासन्निकर्षविधान
___ज्ञानावरणादि कर्मों की वेदना द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट भी होती है और जघन्य भी। फिर भी इनमें से प्रत्येक कर्म के उत्कृष्ट या जघन्य द्रव्यादि वेदना के रहने पर उसी की क्षेत्रादि वेदना किस प्रकार की होती है । तथा विवक्षित एक कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जघन्य रहने पर अन्य कर्म की द्रव्यादि वेदना उत्कृष्ट या जधन्य किस प्रकार की होती है, इस बात का विचार करने के लिए यह वेदनासन्निकर्षविधान अनुयोगद्वार आया है । इस हिसाब से वेदनासन्निकर्ष के स्वस्थानसन्निकर्ष और परस्थानसन्निकर्ष ये दो भेद होकर उनमें से प्रत्येक के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार-चार भेद करके स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष और परस्थानवेदनासन्निकर्ष का इस अनुयोगद्वार में विस्तार के साथ विचार किया गया है। १४. वेदनापरिमाणविधान
ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की प्रकृतियां कितनी हैं इस बात का विवेचन करने के लिए यह अनुयोगद्वारा आया है । इसमें प्रकृतियों का विचार प्रकृत्यर्थता समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास इन तीन प्रकारों से किया गया है । प्रकृत्यर्थता अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि