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________________ ४२५ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका कर्मों की उत्तरप्रकृतियों की मुख्यता से उनकी संख्या बतलाई है । मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण और नामकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ क्रम से ५, ९ और ९३ न बतलाकार असंख्यात लोकप्रमाण बतलाई हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण की असंख्यात लोकप्रमाण प्रकृतियाँ क्यों है इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूंकि ज्ञान और दर्शन के अवान्तर भेद असंख्यातलोक प्रमाण हैं इसलिये इनको आवरण करने वाले कर्म भी उतने ही हैं । तथा नामकर्म की असंख्यात प्रकृतियाँ क्यों हैं इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी कहते हैं कि चूंकि आनुपूर्वी के भेदों का तथा गति, जाति और शरीरादि के भेदों का ज्ञान कराना आवश्यक था, अत: इस कर्म की असंख्यातलोकप्रमाण प्रकृतियाँ कही हैं । समयप्रबद्धार्थता अनुयोगद्वार में प्रत्येक कर्म के अवान्तर भेदों की उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण समयप्रबद्धों से उस उस कर्म की अवान्तर प्रकृतियों को गुणितकर परिमाण लाया गया है । मात्र ऐसा करते हुए आयुकर्म का समयप्रबद्धार्थता की अपेक्षा परिमाण लाते समय आयुकर्म की अवान्तर प्रकृतियों को अन्तमुहूर्त से गुणा कराया गया है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी का कहना है कि आयुकर्म का बन्धकाल यत: अन्तर्मुहूर्त है अत: यहाँ अन्तमुहूर्तकाल से गुणा कराया गया है । क्षेत्रप्रत्यास अनुयोगद्वार में प्रत्येक कम की समयप्रबद्धार्थतारूप जितनी प्रकृतियाँ उपलब्ध हुई उनकी उस उस प्रकृति के उत्कृष्ट क्षेत्र से गुणित करके परिमाण लाया गया है। १५. वेदनाभागाभागविधान इस अनुयोगद्वार में पूर्वोक्त प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास की अपेक्षा अलग-अलग ज्ञानावरणादि कर्मों की प्रकृतियों के भागाभागका विचार किया गया है। यथा - प्रकृत्यर्थता की अपेक्षा ज्ञानावरण और दर्शनावरण की प्रकृतियाँ अलग-अलग सब प्रकृतियों के कुछ कम दो भागप्रमाण बतलाई हैं और शेष छह कर्मों की प्रकृतियाँ अलगअलग असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाई हैं । इसीप्रकार समयप्रबद्धार्थता ओर क्षेत्रप्रत्यास की अपेक्षा भी किस कर्म की प्रकृतियाँ सब प्रकृतियों के कितने भाग प्रमाण हैं इसका विचार किया गया है। १६. वेदनाअल्पबहुत्वविधान इस अनुयोगद्वार में भी प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास का आश्रयकर अलग-अलग ज्ञानावरणादि कर्मों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। इस प्रकार इन सोलह अनुयोग द्वारों की प्ररूपणा समाप्त होने पर वेदनाखण्ड समाप्त होता है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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