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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका इस विवरण और वंशवृक्ष से स्पष्ट है कि यथार्थ में प्राचीन प्रति एक ही है किंतु खेद है कि अत्यन्त प्रयत्न करने पर भी हमें मूविद्री की प्रति के मिलान का लाभ नहीं मिल सका । यही नहीं, जिस प्रति पर से हमारी प्रथम प्रेस-कापी तैयार हुई वह उस प्रति की छठवीं पीढ़ी की है । उसके संशोधन के लिये हम पूर्णत: दो पांचवी पीढ़ी की प्रतियों का लाभ पा सके । तीसरी पीढ़ी की सहारनपुर वाली प्रति अन्तिम संशोधन के समय हमारे सामने नहीं थी। उसके जो पाठ-भेद अमरावती की प्रति पर अंकित कर लिये गये थे उन्हीं से लाभ उठाया गया है । इस परंपरा में भी दो पीढ़ियों की प्रतियां गुप्त रीति से की गई थी। ऐसी अवस्था में पाठ - संशोधन का कार्य कितना कठिन हुआ है यह वे पाठक विशेष रूप से समझ सकेंगे जिन्हें प्राचीन ग्रंथों के संशोधन का कार्य करना पड़ा है। भाषा के प्राकृत होने और विषय की अत्यन्त गहनता और दुरूहता ने संशोधन कार्य और भी जटिल बना दिया था । यह सब होते हुए भी हम प्रस्तुत ग्रंथ पाठकों के हाथ में कुछ दृढ़ता और विश्वास के साथ दे रहे हैं । उपर्युक्त अवस्था में जो कुछ सामग्री हमें उपलब्ध हो सकी उसका पूरा लाभ लेने में कसर नहीं रखी गई । सभी प्रतियों में कहीं-कहीं लिपिकार के प्रमाद से एक शब्द से लेकर कोई सौ शब्द तक छूट गये हैं। इनकी पूर्ति एक दूसरी प्रति से कर ली गई है। प्रतियों में वाक्य-समाप्ति-सूचक विराम-चिन्ह नहीं हैं। कारंजा की प्रति में लाल स्याही के दण्डक लगे हुए हैं, जो वाक्य समाप्ति के समझने में सहायक होने की अपेक्षा भ्रामक ही अधिक हैं। ये दण्डक किस प्रकार लगाये गये थे इसका इतिहास श्रीमान पं. देवकीनन्दनजी शास्त्री सुनाते थे। जब पं. सीतारामजी शास्त्री ग्रंथों को लेकर कारंजा पहुंचे तब पंडितजी ने ग्रंथों को देखकर कहा कि उनमें विराम-चिन्हों की कमी है। पं. सीतारामजी शास्त्री ने इस कमी की वहीं पूर्ति कर देने का वचन दिया और लाल स्याही लेकर कलम से खटाखट दण्ड लगाना प्रारंभ कर दिया । तब पंडितजी ने उन दण्डकों को जाकर देखा और उन्हें अनुचित स्थानों पर भी लगा पाया तब उन्होंने कहा यह क्या किया ? पं. सीताराम जी ने कहा जहां प्रति में स्थान मिला, आखिर वहीं तो दण्डक लगाये जा सकते हैं ? पण्डितजी इस अनर्थ को देखकर अपनी कृति पर पछताये । अतएव वाक्य का निर्माण करने में ऐसे विराम-चिन्हों का ख्याल बिल्कुल ही छोड़कर विषय के तारतम्य द्वारा ही हमें वाक्य-समाप्ति का निर्णय करना पड़ा है। इस प्रकार तथा अन्यत्र दिये हुए संशोधन के नियमों द्वारा अब जो पाठ प्रस्तुत किया जा रहा है वह समुचित साधनों की अप्राप्ति को देखते हुए असंतोषजनक नहीं कहा जा सकता । हमें तो बहुत थोड़े स्थानों पर शुद्ध पाठ में संदेह रहा है । हमें आश्चर्य इस बात
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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