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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका का नहीं है कि ये थोड़े स्थल शंकास्पद रह गये, किंतु आश्चर्य इस बात का है कि प्रतियों की पूर्वोक्त अवस्था होते हुए भी उन पर से इतना शुद्ध पाठ प्रस्तुत किया जा सका । इस सम्बन्ध में हमसे पुन: यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि गजपतिजी उपाध्याय और पं. सीतारामजी शास्त्री ने भले ही किसी प्रयोजनवश नकलें की हों, किंतु उन्होंने कार्य किया उनकी शक्तिभर ईमानदारी से और इसके लिये उनके प्रति, और विशेषत: पं. गजपति जी उपाध्याय की धर्मपत्नी लक्ष्मीबाई के प्रति हमारी कृतज्ञता कम नहीं है। पाठ संशोधन के नियम १. प्रस्तुत ग्रंथ के पाठ संशोधन में ऊ पर बतलाई हुई अमरावती, सहारनपुर, कारंजा और आरा की चार हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया है । यद्यपि ये सब प्रतियां एक ही प्रति की प्रायः एक ही व्यक्ति द्वारा गत पंद्रह वर्षों के भीतर की हुई नकलें हैं, तथापि उनसे पूर्व की प्रति अलभ्य होने की अवस्था में पाठ-संशोधन में इन चार प्रतियों से बहुत सहायता मिली है । कम से कम उनके मिलान द्वारा भिन्न-भिन्न प्रतियों में छूटे हुए भिन्न-भिन्न पाठ, जो एक मात्रा से लगा कर लगभग सौ शब्दों तक पाये जाते हैं, उपलब्ध हो गये और इस प्रकार कम से कम उन सबकी उस एक आदर्श प्रति का पाठ हमारे सामने आ गया । पाठ का विचार करते समय सहारनुपर की प्रति हमारे सामने नहीं थी, इस कारण उसका जितना उपयोग चाहिये उतना हम नहीं कर सके । केवल उसके जो पाठ-भेद अमरावती की हस्तप्रति पर अंकित कर लिये गये थे, उन्हीं से लाभ उठाया गया है। जहां पर अन्य सब प्रतियों से इसका पाठ भिन्न पाया गया वहां इसी को प्रामाण्य दिया गया है । ऐसे स्थल परिशिष्ट में दी हुई प्रति-मिलान की तालिका के देखने से ज्ञात हो जावेंगे । प्रति-प्रामाण्य के बिना पाठ-परिवर्तन केवल ऐसे ही स्थानों पर किया गया है जहां वह विषय और व्याकरण को देखते हुए नितान्त आवश्यक जंचा । फिर भी वहां पर कम से कम परिवर्तन द्वारा काम चलाया जाता है। २. जहां पर प्रतियों के पाठ-मिलान मात्र से शुद्ध पाठ नहीं मिल सका वहां पहले यह विचार किया गया है कि क्या कनाड़ी से नागरी लिपि करने में कोई दृष्टि-दोषजन्य भ्रम वहां संभव है ? ऐसे विचार द्वारा हम निम्न प्रकार के संशोधन कर सके - (अ) प्राचीन कनाड़ी में प्राकृत लिखते समय अनुस्वार और वर्ण-द्वित्व-बोधक संकेत एक बिन्दु ही होता है, भेद केवल इतना है कि अनुस्वार का बिन्दु कुछ छोटा (०) और द्वित्वका कुछ बड़ा (0) होता है । फिर अनुस्वार का बिन्दु वर्ण के पश्चात् और द्वित्वका वर्ण
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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