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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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यह जो मूल ग्रन्थकारद्वारा सामान्य कथन किया गया है उसका स्पष्टीकरण करते हुए श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है कि वेद से अभिप्राय यहाँ भाववेद का रहा है। कारण कि अन्यथा द्रव्य स्त्रीवेद से भी उत्कृष्ट नारकायुका बन्ध हो सकता है, किन्तु वह "आ पंचमी त्ति सिंहा इत्थीओ जंति छट्ठपुढवि त्ति" इस सूत्र (मूलाचार १२ - ११३) के विरुद्ध होने से सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त द्रव्यस्त्रीवेद के साथ उत्कृष्ट देवायु का भी बन्ध संभव नहीं है, क्योंकि, उसका बन्ध निर्ग्रन्थ लिंग के साथ ही होता है, परन्तु द्रव्यस्त्रियों के वस्त्रादि त्यागरूप भावनिर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है ।
काल की अपेक्षा सब कर्मों की जघन्य वेदना की प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की यह वेदना छद्मस्थ अवस्था के अन्तिम समय को प्राप्त (क्षीणकषाय के अन्तिम समय में) बतलायी गयी है । वेदना, आयु, नाम व गोत्र की कालतः जघन्य वेदना अयोग- केवली के अन्तिम समय में होती है । मोहनीय कर्म की उक्त वेदना सूक्ष्मसाम्यराव के अन्तिम समय में होती है । अपनी अपनी जघन्य वेदना से भिद्ध सब कर्मों की कालतः अजघन्य वेदना कही गयी है ।
(३) अल्पबहुत्व - अनुयोगद्वार में क्रमश: जघन्य पद, उत्कृष्ट पद और जघन्यउत्कृष्ट पद की अपेक्षा आठों कर्मों की कालवेदना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार इन ३ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर प्रस्तुत वेदनाकाल विधान अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है । आगे चलकर उसकी प्रथम चूलिका प्रारम्भ होती है ।
चूलिका १
इस चूलिका में निम्न ४ अनुयोगद्वार हैं- स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
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(१) स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा – इसमें चौदह जीवसमासों के आश्रय से स्थितिबन्ध स्थानों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति
से जघन्य स्थिति को कम करके एक अंक के मिला देने पर जो प्राप्त हो उतने स्थितिस्थान होते हैं । इस अल्पबहुत्व को देशामर्शक सूचित कर श्री वीरसेन स्वामी ने यहाँ अल्पबहुत्व के अव्वोगाढअल्पबहुत्व और मूल प्रकृति अल्पबहुत्व ये दो भेद बतलाकर स्वस्थान- परस्थान के भेद से विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है । अव्वोगाढअल्पबहुत्व में कर्मविशेष की अपेक्षा न कर सामान्यतया जीवसमासों के आधार से जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, स्थितिबन्धस्थान