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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
और स्थितिबन्धस्थानविशेष का अल्पबहुत्व बतलाया गया है । परन्तु मूलप्रकृतिअल्पबहुत्व में उन्हीं जीवसमासों के आधार से ज्ञानावरणादि कर्मों की अपेक्षा कर उपर्युक्त जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्धादि के 'अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है ।
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आगे जाकर “बध्यते इति बन्ध:, स्थितिश्वासी बन्धश्च स्थितिबन्धः, तस्य स्थानं विशेष स्थितिबन्धस्थानम्, अथवा बन्धनं बन्धः स्थितेर्बन्ध: स्थितिबन्ध:, सोऽस्मिन् तिष्ठतीत्रि स्थिति बन्धस्थानम्" इन दो निरुक्तियों के अनुसार स्थितिबन्ध स्थान का अर्थ आबाधास्थान करके पूर्वोक्त पद्धति के ही अनुसार अव्वोगाद अल्पबहुत्व में स्वस्थान परस्थान स्वरूप से जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा आबाधास्थान और आबाधास्थान विशेष के अल्पबहुत्व की सामान्यतया तथा मूल प्रकृति अल्पबहुत्व में इन्हीं के अल्पबहुत्व की कर्मविशेष
आधार से प्ररूपणा की गयी है । तत्पश्चात जघन्य व उत्कृष्ट आबाधा, आबाधास्थान और आबाधाविशेष, इन सबके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा पूर्वोक्त पद्धति के ही अनुसार सम्मिलित रूप में एक साथ भी की गयी है ।
तत्पश्चात् “स्थितयो बध्यन्ते एभिरिति स्थितिबन्धः तेषां स्थानानि अवस्थाविशेषाः स्थितिबन्ध स्थानानि" इस निरुक्ति के अनुसार स्थितिबन्ध स्थानपद से स्थितिबन्ध के कारणभूत संक्लेश व विशुद्धि रूप परिणामों की व्याख्या प्ररूपणा, प्रमाण व अल्पबहुत्व इन ३ अनयोगद्वारों से की गयी है । संक्लेश विशुद्धिस्थानों का अल्पबहुत्व स्वयं मूलग्रन्थकर्ता भट्टारक भूतबलि के द्वारा चौदह जीवसमासों के आधार से किया गया है । तत्पश्चात् स्थितिबन्ध की जघन्य व उत्कृष्ट आदि अवस्थाविशेषों के अल्पबहुत्व का भी वर्णन मूलसूत्रकार ने स्वयं ही किया है ।
(२) निषेकप्ररूपणा - संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त आदि विविध जीव ज्ञानावरणादि कर्मों के आबाधाकाल को छोड़कर उत्कृष्ट स्थिति के अन्तिम समय पर्यन्त प्रथमादिक समयों में किस प्रमाण से द्रव्य देकर निषेकरचना करते हैं, इसकी प्ररूपणा इस अधिकार में प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व, इन ६ अनुयोगद्वारों द्वारा विस्तार से की गई है ।
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(३) आबाधाकाण्डकप्ररूपणा इसमें यह बतलाया गया है कि पंचेन्द्रिय संज्ञी आदि जव आयुकर्म को छोड़कर शेष ७ कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति से आबाधा के एक
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१ यह अल्पबहुत्व श्वेताम्बर कर्मप्रकृति ग्रन्थ की आचार्य मलयगिरि विरचित संस्कृत टीका में भी यत् किंचित् भेद के साथ प्राय: ज्यों का त्यों पाया जाता है ( देखिये कर्मप्रकृति गाथा १, ८०-८१ की टीका) । इसके अतिरिक्त यहाँ अन्य भी कुछ प्रकरण अनूदित जैसे उपलब्ध होते हैं ।