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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३६८ तक कृष्टिकरण क्रियायें भी होती हैं जिनके अन्त में योग का पूर्णत: निरोध हो जाता है और सर्व कर्मों की स्थिति शेष आयु के बराबर हो जाती है । बस, यहीं जीव अयोगी हो जाता है जहां सर्व कर्माश्रव का निरोध, शैलेशी वृत्ति एवं समुच्छिन्नक्रिय-अनिवृत्ति शुक्लध्यान होता है । इस अन्तर्मुहूर्त के द्विचरम समय में ७३ और अन्तिम समय में शेष १२ प्रकृतियों की सत्ता का विनाश हो जाने से जीव सर्व कर्मसे वियुक्त होकर सिद्ध हो जाता है ।
सूत्रकार ने यह विषय दृष्टिवाद के पांच अंगों में से द्वितीय अंग सूत्र पर से संग्रह किया है (पुस्तक १, पृ. १३०, व प्रस्तावना पृ. ७४) । धवलाकार ने उसका जो विस्तार किया है उसके आधार का यद्यपि उन्होंने स्पष्टीकरण नहीं किया, पर मिलान से निश्चयत: ज्ञात होता है कि उन्होंने यह कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्रों से लिया है । यथार्थत: बहुतायत से उन्होंने उक्त चूर्णि सूत्रों को ही जैसा का तैसा उद्धृत किया है जैसा कि प्रस्तुत चूलिका में जगह जगह दी हुई टिप्पणियों पर से ज्ञात हो सकेगा। ९. गत्यागति चूलिका
___ इस चूलिका के चार विभाग किये जा सकते हैं। पहले ४३ सूत्रों में भिन्न भिन्न नारकी तिर्यंच, मनुष्य व देव जिनबिम्बदर्शन, धर्मश्रवण, जातिस्मरण व वेदना इन चार में से किन-किन कारणों द्वारा व कब सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं इसका प्ररूपण किया गया है। आगे सूत्र ४४ से ७५ तक उक्त चारों गतियों में प्रवेश करने और वहांसे निकलने के समय जीव के कौन-कौन गुणस्थान होना संभव है इसका निर्देश किया गया है। सूत्र ७६ से २०२ तक यह बतलाया गया है कि उक्त गतियों से भिन्न-भिन्न गुणस्थानों सहित निकलकर जीव कौन-कौनसी गतियों में जा सकता है । फिर सूत्र २०३ से अन्तिम सूत्र २४३ तक यह बतलाया गया है कि उक्त चार गतियों के जीव उस गति से निकलकर जिस अन्य गति में जावेंगे वहां वे कौन कौन से गुण प्राप्त कर सकते हैं। ये चारों विषय आगे चार पृथक तालिकाओं में स्पष्ट कर दिये गये हैं अतएव उनके विषय में यहां विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है।
यह गत्यागति का विषय सूत्रकार ने दृष्टिवाद के पांच अंगों में प्रथम अंग परिकर्म के चन्द्र-प्रज्ञप्ति आदि पांच भेदों के अन्तिम भेद वियाहपण्णत्ति (व्याख्याप्रज्ञप्ति) से ग्रहण किया है।
(पुस्तक १ पृ. १३०)