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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका आठ कषाय व निद्रानिद्रादिका संक्रमण, मन:पर्ययज्ञानावरणादिक का बन्ध से देशघातिकरण, चार संज्वलन और नौ नोकषायों का अन्तरकरण तथा नपुंसक व स्त्रीवेद तथा सात नोकषायों का संक्रमण बतलाया गया है (पृ. ३४४ - ३६४) । इसके आगे अश्वकर्णकरणकाल का निरूपण है जिसमें चारों कषायों के स्पर्द्धकों और फिर उनके अपूर्वस्पर्द्धकों तथा उनकी वर्गणाओं में अविभागप्रतिच्छेदों का वर्णन किया गया है (पृ. ३६४-३३८) । इसके पश्चात् अश्वकर्णकरण काल के प्रथम, द्वितीय व तृतीय समय के कार्यों का अल्पबहुत्व, अनुभाग सत्वकर्म का अल्पबहत्व व अपूर्वस्पर्द्धकों का अल्पबहुत्व देकर अश्वकर्णकरण अन्तर्मुहर्तकाल का विधान समाप्त किया गया है (३६९-३७३) । यहां अश्वकर्णकरण काल के अन्त में कर्मों के स्थितिबन्ध का प्रमाण बतलाकार कृष्टिकरण काल का विधान समझाया गया है जिसमें प्रथमसमयवर्ती कृष्टियों की तीव्र-मंदता का अल्पबहुत्व, कृष्टियों के अन्तरों का अल्पबहुत्व, कृष्टियों के प्रदेशाग्र की श्रेणी प्ररूपणा और कृष्टिकरणकाल के अन्त समय में संज्वलनादि कर्मों के स्थितिबन्ध का निरूपण खूब विशद हुआ है (पृ. ३७४-३८१) । कृष्टिकरणकाल में पूर्व और अपूर्व स्पर्धकों का वेदन होता है, कृष्टियों का नहीं। जब कृष्टिकरणकाल समाप्त हो जाता है, तब उनके वेदन का काल प्रारम्भ होता है, जिसमें कृष्टियों के बन्ध, उदय, अपूर्वकृष्टिनिर्माण, प्रदेशाग्रसंक्रमण एवं सूक्ष्मसाम्परायकृष्टियों का निर्माण किया जाता है।
__ (पृ. ३८२ - ४०६) यह जो विधान बतलाया गया है वह क्रोध कषाय व पुरुषवेद से उपस्थित होने वाले जीव का है। अब आगे क्रम से मान, माया व लोभ तथा स्त्रीवेद व नपुंकसवेद से उपस्थित हुए क्षपक की विशेषताएं बतलाई गई हैं (पृ. ४०७-४१०)। यह सब सूक्ष्मसाम्यपराय तक का कार्य हुआ जिसके अन्त में कर्मों के स्थितिबंध का प्रमाण बतलाकर आगे क्षीणकषाय गुणस्थान में होने वाले घातिया कर्मों की उदीरणा, निद्रा-प्रचला के उदय और सत्व का व्युच्छेद तथा अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के सत्त्व व उदय के व्युच्छेद का निर्देश करके सयोगकेवली गुणस्थान प्राप्त कराया गया है । (पृ. ४१०-४१२)
सयोगी जिन सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हुए एवं असंख्यातगुणश्रेणी द्वारा प्रदेशाग्रनिर्जरा करते हुए विहार करते हैं व आयु के अन्तर्मुहर्त शेष रहने पर वे केवलिसमुद्धात करते हैं जिसकी दंड, कपाट, मंथ एवं लोकपूरण क्रियाओं में होने वाले कार्य बतलाये गये हैं (पृ. ४१२- ४१४) । इसके पश्चात् मन, वचन और काय योगों के निरोध का विधान है। सूक्ष्मकाय का निरोध करते समय अन्तर्मुहूर्त तक अपूर्वस्पर्द्धककरण और फिर अन्तर्मुहूर्त