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________________ ३६६ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका पड़ता है, इसका खूब खुलासा किया है (पृ. २०७-२१४) । इसके पश्चात् अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामों की विशेषता समझाई है (पृ. २१५-२२२) । सूत्र ५ के आश्रय से उन्होंने यह बात विस्तार से बतलाई है कि उक्त परिणामों में विशुद्धि बढ़ने के साथ-साथ कर्मो का स्थिति व अनुभाग घात किस प्रकार व किस क्रम से होता है (पृ.२२२२३०) । फिर मिथ्यात्व के अवघट्टन या अन्तरकरण की क्रिया समझाई है व उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होने तक गुणश्रेणी व गुणसंक्रमणादि कार्य बतलाये हैं, तथा पूर्वोक्त समस्त क्रियाओं के काल का अल्पबहुत्व पच्चीस पदों के दंडक द्वारा बतलाया है (पृ. २३१-२३७) । क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति के योग्य क्षेत्र व जीव का स्पष्टीकरण करते हुए उन्होंने यह बतलाया है कि जिन जीवों का पन्द्रह कर्मभूमियों में ही जन्म होता है, अन्यत्र नहीं, वे ही क्षपणा के योग्य होते हैं, और चूंकि तिर्यंच उक्त कर्मभूमियों के अतिरिक्त स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में भी उत्पन्न होते हैं, इससे तिर्यचमात्र क्षपणा के योग्य नहीं ठहरते (पृ. २४४-२४५) । यद्यपि जिस काल में जिन, केवली व तीर्थंकर हों वही काल क्षपणा की प्रस्थापना के योग्यहोता है ऐसा कहने से केवल दुषमासुषमा काल ही इसके योग्य ठहरता है, पर कृष्णादिक के तीसरी पृथ्वी से निकलकर तीर्थकरत्व प्राप्त करने की जो मान्यता है उसके अनुसार सुषमादुषमा काल में भी दर्शनमोह का क्षपण किया जा सकता है (पृ. २४६२४७) । आगे दर्शनमोह के क्षपण करने के आदि में अनन्तानुबंधी के विसंयोजन से लगाकर जो स्थितिबंधापसरण, अनुभागबंधापसरण,स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात व गणश्रेणी संक्रमण आदि कार्य होते हैं वे खूब विस्तार से समझाये हैं (पृ.२४५-२६६ )। और फिर वे ही कार्य देशचारित्र सहित सम्यक्त्व उत्पन्न करने वाले के किस विशेषता को लेकर होते हैं यह बतलाया है (पृ.२६८-२८०) । वे ही कार्य सकलचारित्र की प्राप्ति में किस विशेषता को लेकर होते हैं यह बतलाया है (पृ.२६८-२८० )। वे ही कार्य सकलचारित्र की प्राप्ति में किस विशेषता से होते हैं यह फिर आगे बतलाया है (पृ. २८१-३१७) । इससे आगे उपशांतकषाय से पतन होने का क्रमवार विवरण दिया गया है (पृ.३१७-३३१) और फिर पूर्वोक्त जो पुरुषवेद और क्रोधकषाय सहित श्रेणी चढ़ने का विधान कहा है उसमें अन्य कषायों व अन्य वेदों से चढ़ने पर क्या विशेषता उत्पन्न होती है यह बतलाया है (पृ.३३२३३५) । तत्पश्चात् श्रेणी चढ़ने से उतरने तक की समस्त क्रियाओं के काल का अल्पबहुत्व कहा गया है । (पृ. ३३५-३४२) । अब चरित्रमोह की क्षणका का विधान आता है जिसमें अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर समय समय की क्रियाओं का विशद और सूक्ष्म निरूपण किया गया है और क्रमश:
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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