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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३६३ समान कर्मस्थिति बांधते हैं या भिन्न-भिन्न, एवं बंध होते ही कर्म अपना फल दिखाने लगते हैं या कुछ काल पश्चात् ? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर आगे की दो अर्थात् उत्कृष्टस्थिति और जघन्यस्थिति चूलिका में दिये गये हैं। उत्कृष्टस्थिति चूलिका में यह बतलाया गया है कि भिन्न-भिन्न कर्मो का अधिक से अधिक बंधकाल कितना हो सकता है और कितने काल की उनमें आबाधा हुआ करती है अर्थात् बंध होने के कितने समय पश्चात् उनका विषाक प्रकट होता है । इस काल निर्देश के लिये आगे दी हुई तालिका देखिये । आबाधा के सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक कोडाकोडी सागर के बंध पर एक सौ वर्षों की आबाधा होती है । जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, असातावेदनीय व अन्तराय कर्मो का उत्कृष्ट स्थितिबंध तीस कोडाकोडी सागरोपमों का है तो इसी पर से जाना जा सकता है, कि उक्त कर्म बंध होने से तीन हजार वर्षों के पश्चात् उदय में आवेंगे । पर यह नियम आयुकर्म के लिये लागू नहीं होता क्योंकि वहां अधिक से अधिक आबाधा अधिक से अधिक भुज्यमान आयु के तृतीय भागप्रमाण ही हो सकती है (देखो सू. २९ टीका)। जिन कर्मो की स्थिति अन्त:कोडाकोड़ी सागरोपम की है उनकी आबाधा का प्रमाण एक अन्तर्मुहूर्त माना गया है (देखो सू. ३३३४) । इस प्रकार आबाधाकाल को छोड़कर शेष समस्त कर्मस्थितिकाल में उन कर्मों का निषेक अर्थात् उदय में आकर गलन होता है जिसकी प्रक्रिया धवलाकार ने गणित के नियमानुसार विस्तार से समझाई है । इसमें आबाधाकाण्डक और नानागुणहानि आदि प्रक्रियायें ध्यान देने योग्य हैं (देखो सू. ६ टीका)। इस चूलिका की सूत्रसंख्या ४४ है जिनके विषय का संग्रह महाकर्मप्रकृति के बंधविधानान्तर्गत स्थिति अधिकार अर्धच्छेद प्रकरण से किया गया है। ७. जघन्यस्थिति चूलिका जिस प्रकार उपर्युक्त उत्कृष्टस्थिति चूलिका में कर्मो की अधिक से अधिक स्थिति व आबाधा आदि का विवरण दिया गया है, उस प्रकार जघन्यस्थिति चूलिका में कर्मो की कम से कम संभव स्थिति व आबाधा आदि का ज्ञान कराया गया है । यहां धवलाकार ने आदि में ही उत्कृष्ट और जघन्य स्थितियोके कर्मबंधों का कारण इस प्रकार बतलाया है कि परिणामों की उत्कृष्ट विशुद्धिसे जो कर्मबंध होता है उसमें स्थिति जघन्य पड़ती है और जितनी मात्रा में परिणामों में संक्लेश की वृद्धि होती है उतनी ही कर्मस्थिति की वृद्धि होती है। असाता बंध के योग्यपरिणाम को संक्लेश कहते हैं और साताबंध के योग्य परिणाम को विशुद्धि । दूसरे आचार्यों ने जो उत्कृष्ट स्थिति से नीचे-नीचे की स्थितियों को बांधनेवाले
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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