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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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इस चूलिका का विषय भी प्रथम चूलिका के समान महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के बंधविधान के समुत्कीर्तना अधिकार से लिया गया है। इसकी सूत्रसंख्या ११७ है | ३. प्रथम महादंडक चूलिका
इस चूलिका में केवल दो सूत्र हैं जिनमें से एक में ऐसी प्रकृतियां बतलाने की प्रतिज्ञा की गई है जिन्हें प्रथमसम्यक्त्व को ग्रहण करने वाला जीव बांधता है, और दूसरे सूत्र
प्रकृतियां गिनाई गई हैं तथा यह भी प्रकट कर दिया गया है कि उनका स्वामी मनुष्य या तिर्यंच होता है । इन प्रकृतियों की संख्या ७३ है । विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त जीव आयुकर्म का बंध नहीं करता, एवं आसाता व स्त्री - नपुंसकवेदादि अशुभ प्रकृतियों को भी नहीं बांधता । धवलाकार ने यहां अपनी व्याख्या में सम्यक्त्वोन्मुख जीव के किस परिणामों में किस प्रकार विशुद्धता बढ़ती है और उससे किस प्रकार अशुभतम, अशुभतर व अशुभ प्रकृतियों का क्रमशः बंधव्युच्छेद होता है इसका विशद निरूपण किया है (देखो पृ. १३५ - १३९), और अन्त में क्षयोपशम आदि पांच लब्धियों के निर्देश करने वाली गाथा को उद्घृत करके चूलिका समाप्त की है।
४. द्वितीय महादंडक चूलिका
जिस प्रकार प्रथम दंडक में तिर्यंच और मनुष्य प्रथमसम्यक्त्वोन्मुख जीवों के बंध योग्य प्रकृतियां बतलाई हैं, उसी प्रकार इस दूसरे महादंडक में प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख, देव और प्रथमादि छह पृथिवियों के नारकी जीवों के बंध योग्य प्रकृतियां गिनाई गई हैं। यहां भी सूत्रों की संख्या केवल दो ही है ।
५. तृतीय महादंडक चूलिका
इस चूलिका में सातवीं पृथिवी के नारकी जीवों के सम्यक्त्वाभिमुख होने पर बंध योग्य प्रकृतियों का निर्देश किया गया है।
उपर्युक्त तीनों दडकों का विषय भी उपर्युक्त महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के समुत्कीर्तना अधिकार से लिया गया है ।
६. उत्कृष्टस्थिति चूलिका
कर्मो का स्वरूप व उनके बंध योग्य स्थानों का ज्ञान हो जाने पर स्वभावत: यह प्रश्न उपस्थित होता है कि एक बार बांधे हुए कर्म कितने काल तक जीव के साथ रह सकते हैं, सब कर्मों का स्थितिकाल बराबर ही है या कम बढ़, व सब जीव सब समय एक ही