SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६१ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका मिथ्यादृष्टि जीव भिन्न प्रकार से ३० प्रकृतियों को बांधता है (सूत्र ६४, ६६, ६८) । तिर्यंचगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि एवं तिर्यंचगति सहित विकलेन्द्रिय पर्याप्त का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव भिन्न प्रकार से २९ प्रकृतियों को बांधता है (सूत्र ७०, ७२, ७४) । तिर्यंचगति सहित एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त और आताप या उद्योत का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि २६ प्रकृतियों को बांधता है (सूत्र ७६) । तिर्यंचगति सहित एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर का सूक्ष्म का बंध करता हुआ, अथवा त्रस एवं अपर्याप्त का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि भिन्न प्रकार से २५ प्रकृतियों को बांधता है । (सूत्र ७८,८०)। तिर्यंचगति सहित एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर या सूक्ष्म का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि २३ प्रकृतियां बांधता है । (सूत्र ८२) मनुष्य गति पंचेन्द्रिय और तीर्थंकर प्रकृतियों को बांधता हुआ असंयत सम्यग्दृष्टि जीव ३० प्रकृतियों का बंध करता है । मनुष्यगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त को बांधता हुआ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, सासादन व मिथ्यादृष्टि भिन्न प्रकार से २९ प्रकृतियों को बांधता है (सू.७८,८९, ९१ )। मनुष्य गति सहित पंचेन्द्रिय अपर्याप्त को बांधता हुआ मिथ्यादृष्टि २५ प्रकृतियों का बंध करता है (सू.९३) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, आहारक और तीर्थंकर प्रकृतियों का बंध करता हुआ अप्रमत्तसंयत या अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव ३१ प्रकृतियों को बांधता है (सू.९६) । वहीं जीव तीर्थंकर प्रकृति को छोड़कर ३० का एवं आहारक को भी छोड़कर २९ का बंध करता है (सू.९८, १००) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीर्थंकर को बांधता हुआ असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत जीव भी २९ प्रकृतियों को बांधता है (सू. १०२) । देवगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त का बंध करता हुआ अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अथवा मिथ्यादृष्टि, सासादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत ब संयत जीव २८ प्रकृतियों का बंध करता है (सू. १०४, १०६) । जब संयत जीव यश:कीर्ति का बंध करता है तब केवल इस एक नामप्रकृति का ही बंध होता है (सू.१०८ ) । इस प्रकार यद्यपि एक साथ बांधने वाले प्रकृतियों की संख्या की अपेक्षा नामकर्म के आठ बंधस्थान हैं तथापि संस्थान, संहनन एवं विहायोगति आदि सात युगलों के विकल्पों से बंधस्थानों के भेद कई हजारों पर पहुंच गये हैं (देखो सू. ९०, ९१)। . गोत्रकर्म के केवल दो ही बंधस्थान हैं। मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि जीव नीचगोत्र का और शेष उच्च गोत्र का बंध करते हैं। __ अन्तरायकर्म का केवल एक ही बंधस्थान है क्योंकिमिथ्यादृष्टि से लेकर संयत तक सभी जीव पांचों ही अन्तरायों का बंध करते हैं।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy