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________________ ३६० षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका इन दोनों वेदनीयों का बंध करते हैं । मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान हैं। पहले स्थान में मिथ्यादृष्टि जीव हैं जो एक साथ बंध योग्य वाईस ही प्रकृतियों का बंध करते हैं। यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व उत्पन्न होते समय मिथ्यात्व के तीन टुकड़े हो जाने से सत्त्व में आ जाती हैं। तथा तीन वेदों और हास्य-रति व अरति - शोक इन दो युगलों में से एक साथ एक ही का बंध सम्भव होता है । मोहनीय के दूसरे बंधस्थान में सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं जो उपर्युक्त वाईस में से एक नपुंसकवेद को छोड़ शेष इक्कीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। तीसरे स्थान में सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं जो उक्त इक्कीस में से चार अनन्तानुबंधी कषायों व स्त्रीवेद को छोड़ शेष सत्तरह का बंध करते हैं। चौथे स्थान में संयतासंयत जीव हैं जो चार अप्रत्याख्यान कषायों का भी बंध नहीं करते, केवल शेष तेरह का करते हैं। पांचवें स्थान में वे संयत जीव हैं जो चार प्रत्याख्यान कषायों का भी बंध नहीं करते, पर शेष नौ का करते हैं। छठवें स्थान में वे संयत जीव हैं जो मोहनीय की अन्य प्रकृतियों को छोड़ केवल चार संज्वलन और पुरुषवेद, इन पांच का ही बंध करते हैं। सातवें स्थान में वे संयत जीव हैं जो पुरुषवेद को भी छोड़ केवल संज्वलन चतुष्क को बांधते हैं। सातवें स्थान में वे संयत हैं जो क्रोध संज्वलन को छोड़ शेष तीन का ही बंध करते हैं नौवें स्थान वाले वे संयत हैं जो मान संज्वलन का भी बंध करना छोड़ देते हैं व केवल शेष दो का बंध करते हैं । दशवें स्थान में केवल लोभ संज्वलन का बंध करने वाले संयत हैं। __ आयुकर्म की चारों प्रकृतियों के अलग-अलग चार बंधस्थान हैं - एक नरकायु को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि का; दसरा तिर्यचायु को बांधने वाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिका; तीसरा मनुष्यायु को बांधने वाले मिथ्यादृष्टि, सासादन व असंयतसम्यग्दृष्टिका; और चौथा देवायु को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत व संयतका यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव किसी भी आयु को नहीं बांधता। नामकर्म के बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या के अनुसार आठ बंधस्थान हैं जिनमें क्रमश: ३१, ३०, २९, २८, २६, २५, २३ और १ प्रकृतियों का बंध किया जाता है । इन स्थानों का चार गतियों के अनुसार इस प्रकार निरूपण किया गया है - नरकगति और पंचेन्द्रिय पर्याप्त का बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव २८ प्रकृतियों को बांधता है (सूत्र ६२) । तिर्यंचगति सहित पंचेन्द्रिय पर्याप्त व उद्योतका बंध करता हुआ मिथ्यादृष्टि जीव अथवा सासादन जीव एवं तिर्यंचगति सहित विकलेन्द्रिय पर्याप्त व उद्योत का बंध करता हुआ
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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