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________________ ३५६ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका विमान में ही उत्पन्न होता है जहां दो सागरोपम स्थिति की संभावना है । धवलाकार ने उक्त कल्प के अधस्तन विमान में ही तेजोलेश्या के संभव का उपदेश बतलाया है (देखो पुस्तक ४ प. २९६) । फिर भी राजवार्तिक ४-२२ में तथा गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५२१ में तेजोलेश्यासहित सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प के अन्तिम पटल में जाने का विधान पाया जाता है । यह कोई मतभेद नहीं मालूम होता है । पुस्तक ५, पृ. २१८ २४. शंका - कोई तिर्यंच जीव मनुष्य का बंध करके पश्चात् क्षयोपशम सम्यक्त्व सहित मरण कर मनुष्यगति को प्राप्त हो सकता है या नहीं ? गोम्मटसार जीवकांण्ड, गाथा ५३०-५३१ में इसको स्पष्ट माना है, किन्तु षट्खंडागम जीवट्ठाण की भावप्ररूपणा के सूत्र ३४ और उसकी टीका से उसमें कुछ सन्देह होता है ? (हुकमचंद जैन, सलावा, मेरठ) समाधान - कृतकृत्यवेदक को छोड़ अन्य क्षयोपशमसम्यक्त्वी तिर्यंच मरण करके एक मात्र देवगति को ही प्राप्त होता है (देखो गत्यागति चूलिका सूत्र १३१, पृ. ४६४)। यदि उस तिर्यंच ने उक्त सम्यक्त्व प्राप्त करने से पूर्व देवायु को छोड़ अन्य किसी आयु का बन्ध कर लिया है तो मरण से पूर्व उसका वह सम्यक्त्व छूट जायगा (देखो गत्यागति चूलिका, सूत्र १६४ टीका, पृ. ४७५) । जीवकाण्ड की गाथा ५३१ में केवल मनुष्य व तिर्यंचों के भोग भूमि में अपर्याप्त अवस्था में सम्यक्त्व होने का सामान्य से उल्लेख मात्र है । संस्कृत टीकाकार ने यहां क्षायिक व वेदक सम्यक्त्व का विधान किया है जिससे क्षायिक व कृतकृत्यवेद का अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये, अन्य क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का नहीं। (देखो भाग २, पृ. ४८१)। पुस्तक ५, पृ. २१८ २५. शंका – यहां सूत्र ३४ की टीका में जहां देव, नारकी व मनुष्य सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति तिर्यंच व मनुष्यों में बतलायी है वहां तिर्यंच सम्यग्दृष्टि जीवों की भी उत्पत्ति उक्त दोनों प्रकार के जीवों में क्यों नहीं बतलायी ? क्या मनुष्य के समान बद्धायुष्क क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि तिर्यंच मरकर तिर्यंच व मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकता या मरते समय उसका वह सम्यग्दर्शन छूट जाता है ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान – इस शंका का समाधान ऊपर की शंका के समाधान में हो चुका है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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