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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३५५ सम्भव है ? पुरुषवेद की स्थिति पूर्ण हो जाने पर तो देवियों में उत्पन्न कराना चाहिये था न कि देवों में? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान – यहां 'देवों में उत्पन्न हुआ' इसका अभिप्राय देवगति में उत्पन्न हुआ समझना चाहिये। पुस्तक ५, पृ. ११५ २२. शंका – सूत्र २३४ की टीका में अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि की अन्तरप्ररूपणा में संज्ञी सम्मूछिम पर्याप्त के अवधिज्ञान का सद्भाव कहा है। परन्तु इसके आगे सूत्र २३७ की टीका में मति-श्रुतज्ञानी संयता संयतों के उत्कृष्ट अन्तर सम्बन्धी शंका के समाधान में उक्त जीवों में उसी का अभाव भी बतलाया है । इस विरोध का परिहार क्या है ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - संज्ञी सम्मूर्छिम पर्याप्त तिर्यंचों में वेदक सम्यक्त्व,संयामासंयम व अवधिज्ञान उत्पन्न होना तो निश्चित है, क्योंकि कालप्ररूपणा के सूत्र १८ की टीका में संयतासंयत का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल एवं सूत्र २६६ की टीका में आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानियों का काल उक्त जीवों में ही घटित करके बतलाया गया है । उसी प्रकार प्रस्तुत सूत्र २३४ की टीका में भी वही बात स्वीकृत की गई है वह उपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा से है, क्योंकि उन जीवों में उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति का अभाव है । यही बात आगे सूत्र २३७ की टीका के शंका-समाधान में उपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा क्यों उत्पन्न हुई यह बात विचारणीय रह जाती है । पुस्तक ५, पृ. १४७ २३. शंका – यहाँ सूत्र ३०४ में तेजोलेश्या वाले मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यम्दृष्टि का तथा सूत्र ३०६ में इसी लेश्यावाले सासादन व सम्यग्मिथ्यादृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर जो दो सागरोपमप्रमाण ही बतलाया गया है वह कम है, क्योंकि सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्पों की अपेक्षा उक्त अन्तर सात सागरोपमप्रमाण भी हो सकता था। फिर उसकी यहां उपेक्षा क्यों की गई है ? यही शंका उपर्युक्त लेश्यावाले जीवों के कालप्ररूपण (पु.४ पृ. ४६२) में भी उठायी जा सकती है ? (नेमीचंद रतनचंद जी, सहारनपुर) समाधान - उक्त विधान से यही प्रतीत होता है कि तेजोलेश्यावाला मिथ्यादृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सानत्कुमार-माहेन्द्र कल्प में उत्पन्न नहीं होता या उसके अधस्तन
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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