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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३२७ ज्ञात होता है कि चतुर्दशपूर्वधारी जीव लान्तव-कापिष्ठ कल्प से लगाकर सर्वार्थसिद्धिपर्यत उत्पन्न होते हैं। चूंकि 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविद: ' के नियमानुसार उपशमश्रेणीवाले भी जीव पूर्ववित् हो जाते हैं, अतएव उनकी लान्तवकल्प से ऊपर ही उत्पत्ति होती है नीचे नहीं, ऐसा अवश्य कहा जा सकता है । वह गाथा इस प्रकार है -
दसपुव्वधरा सोहम्मप्पहुदि सध्वट्ठसिद्धिपरियंतं चोद्दसपुव्वधरा तह लंतवकप्पादि बच्चंते ॥ ति.प.पत्र २३७, १६.
(३) उपशमश्रेणी पर नहीं चढ़ने वाले, पमत्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में ही परिवर्तन सहस्रों को करने वाले साधु सर्वार्थसिद्धि नहीं जा सकते हैं, ऐसा स्पष्ट उल्लेख देखने में नहीं आया । प्रत्युत इसके त्रिलोकसार गाथा नं. ५४६ के 'सव्वट्ठो त्ति सुदिट्ठी महव्वई' पद से द्रव्य भावरूप से महाव्रती संयतों का सर्वार्थसिद्धि तक जाने का स्पष्ट विधान मिलता है। पुस्तक ४, पृष्ठ ४११ १२. शंका - योग परिवर्तन और व्याघात - परिवर्तन में क्या अन्तर है ?
(नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र ता. १-४-४२) समाधान - विवक्षित योग का अन्य किसी व्याघात के बिना काल-क्षय हो जाने पर अन्य योग के परिणमन को योग-परिवर्तन कहते हैं । किन्तु विवक्षित योग का कालक्षय होने के पूर्व ही क्रोधादि निमित्त से योग-परिवर्तन को व्याघात कहते हैं । जैसे- कोई एक जीव मनोयोग के साथ विद्यमान है । जब अन्तर्मुहूर्त प्रमाण मनोयोग का काल पूरा हो गया तब वह वचन योगी या काययोगी हो गया । यह योग-परिवर्तन है । इसी जीव के मनोयोग का काल पूरा होने के पूर्व ही कषाय, उपद्रव, उपसर्ग आदि के निमित्त से मन चंचल हो उठा
और वह वचनयोगी या काययोगी हो गया, तो यह योग का परिवर्तन व्याघात की अपेक्षा से हुआ। योग परिवर्तन में काल प्रधान है, जब कि व्याघात-परिवर्तन में कषाय आदि का आघात प्रधान है। यही दोनों में अन्तर है । पुस्तक ४, पृष्ठ ४५६
. १३. शंका - पृष्ठ ४५६ में 'अण्णलेस्सागमणासंभवा' का अर्थ 'अन्य लेश्याका आगमन असंभव है' किया है, होना चाहिए - अन्य लेश्या में गमन असंभव है ?
(जैन सन्देश, ता. ३०-४-४२)