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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३२६ पुस्तक ४, पृष्ठ ३५०
१०. शंका - धवलराज खंड ४, पृष्ठ ३५०, ३६६ पर सम्मळुन जीव के सम्यग्दर्शन होना लिखा है । परन्तु लब्धिसार गाथा २ में सम्यग्दर्शन की योग्यता गर्भज के लिखी है, सो इसमें विरोध सा प्रतीत होता है, खुलासा करिए।
(नानकचन्द्र जैन, खतौली, पत्र १६-३-४२) समाधान - लब्धिसार गाथा दूसरी में जो गर्भज का उल्लेख है, वह प्रथमोपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति की अपेक्षा से है । किन्तु यहां उपर्युक्त पृष्ठों में जो सम्मूर्चिछम जीव के संयमासंयम पाने का निरूपण है, उसमें प्रथमोशमसम्यक्त्व का उल्लेख नहीं है, जिससे ज्ञात होता है कि यहां वह कथन वेदकसम्यक्त्व की अपेक्षा से किया गया है । अतएव दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं समझना चाहिए। पुस्तक ४, पृष्ठ ३५३
११. शंका - आपने अपूर्वकरण उपशामक को मरण करके अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होना लिखा है, जब कि मूल में 'उत्तमो देव' पाठ है । क्या उपशमश्रेणी में मरण करने वाले जीव नियम से अनुत्तर में ही जाते हैं ? क्या प्रमत्त और अप्रमत्तवाले भी सर्वार्थसिद्धि में जा सकते हैं ?
_ (नानकचंद्र जैन खतौजी, पत्र ता. १-४-३२) समाधान- इस शंका में तीन शंकायें गर्भित हैं जिनका समाधान क्रमशः इस प्रकार है -
१. मूल में 'उत्तमा देवो' पाठ नहीं किन्तु' 'लयसत्तमों देवो' पाठ है । लयसत्तम का अर्थ अनुत्तर विमानवासी देव होता है । यथा - लवसत्तम-लवसप्तम-पु. । पंचानुत्तरविमानस्थ-देवेसु । सूत्र १ श्रु. ६ अ. । सम्प्रति लवसप्तमदेवस्वरूपमाह -
सत्त लवा जइ आउं पहुं पमाणं ततो उ सिझंतो। तत्तियमेत्तं न हु तं तो ते लवसत्तमा जाया ॥१३२॥ सव्वट्ठसिद्धिनामे उक्कोसठिई य विजयमादीसु। एगावसेसगन्भा भंवति लवसत्तमा देव ॥ १३३॥ व्य. ५ उ.
__ अभिघानराजेन्द्र, लवसत्तमशब्द. (२) उपशमश्रेणी में मरण करने वाले जीव नियम से अनुत्तर विमानों में ही जाते हैं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु त्रिलोकप्रज्ञप्ति की निम्न गाथा से ऐसा अवश्य