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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३२५ की दृष्टि इसी संशोधन के आधार से उक्त पाठ पर अटकी और उन्होंने 'व ण' पाठ की वहां आवश्यकता अनुभव की । इससे हमारी कल्पना की पूरी पुष्टि हो गई। अब यदि 'व ण' पाठ की पूर्ति उपलब्ध पाठ के 'घण' को 'व ण' बनाकर कर ली जाय तो भी अर्थ का निर्वाह हो जाता है और किये गये अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता । बात इतनी है कि ऐसा पाठ उपलब्ध प्रतियों में नहीं मिलता और न मूडबिद्री से कोई सुधार प्राप्त हुआ। पुस्तक ४, पृ. २४० ८. शंका - पृ. २४० में ५७ वें सूत्र के अर्थ में एकेन्द्रियपर्याप्त एकेन्द्रियअपर्याप्त भेद गलत किये हैं, ये नहीं होना चाहिए ; क्योंकि, इस सूत्र की व्याख्या में इनका उल्लेख नहीं है ? (जैन सन्देश, ता. ३०-४-४२) समाधान - यद्यपि यहां व्याख्या में उक्त भेदों का कोई उल्लेख नहीं है, तथापि द्रव्यप्रमाणानुगम (भाग ३, पृ.३०५) में इन्हीं शब्दों से रचित सूत्र नं. ७४ की टीका में धवला कारने उन भेदों का स्पष्ट उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है - "एइंदिया बादरेइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता च एदे णव वि रासीओ .........." । धवलाकार ने इसी स्पष्टीकरण को ध्यान में रखकर प्रस्तुत स्थल पर भी नौ भेद गिनाये गये हैं। तथा उन भेदों के यहां ग्रहण करने पर कोई दोष भी नहीं दिखता । अतएव जो अर्थ किया गया है वह सप्रमाण और शुद्ध है। पुस्तक ४, पृष्ठ ३१३ ९. शंका - पृ. ३१३ में - ‘स-परप्पयासमयपमाणपडिवादीण' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, इसके स्थान में यदि 'सपरप्पयासयमणिपमाणपईवादीण ' पाठ हो तो अर्थ की संगति ठीक बैठ जाती है ? (जैन सन्देश, ३०-४-४२) समाधान - प्रस्तुत स्थल पर उपलब्ध तीनों प्रतियों में जो विभिन्न पाठ प्राप्त हुए और मूडबिद्री से जो पाठ प्राप्त हुआ उन सबका उल्लेख वहीं टिप्पणी में दे दिया गया है। उनमें अधिक हेर-फेर करना हमने उचित नहीं समझा और यथाशक्ति उपलब्ध पाठों पर से ही अर्थ की संगति बैठा दी । यदि पाठ बदलकर और अधिक सुसंगत अर्थ निकालना ही अभीष्ट हो तो उक्त पाठ को इस प्रकार रखना अधिक सुसंगत अर्थ निकालना ही अभीष्ट हो तो उक्त पाठको इस प्रकार रखना अधिक सुसंगत होगा - स-परप्पयासयपमाणपडीवादीणमुबलंभा। इस पाठ के अनुसार अर्थ इस प्रकार होगा - "क्योंकि स्व-परप्रकाशक प्रमाण व प्रदीपादिक पाये जाते हैं (इसलिये शब्द के भी स्वप्रतिपादकता बन जाती है) "।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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