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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३२४ समाधान - उक्त पृष्ठ पर दी गई शंका-समाधान के अभिप्राय समझने में भ्रम हुआ है । यह शंका-समाधान केवल चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उन उपशमसम्यग्दृष्टियों के लिये है, जो कि उपशमश्रेणी से उतरकर आये हैं। इसका सीधा अभिप्राय यह है कि सर्वसाधारण उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतों का मरण नहीं होता है । अपवादरूप जिन उपशमसम्यग्दृष्टि असंयतों का मरण होता है उन्हें श्रेणी से उतरे हुए ही समझना चाहिए । आगे पृ. ३५१ से ३५४ तक कई स्थानों पर जो श्रेणी से उतरे हुए ही समझना चाहिए। आगे पृ.३५१ से ३५४ तक कई स्थानों पर जो श्रेणी पर चढ़ते या उतरने हुए मरण लिखा है, वह उपशामकगुणस्थानों की अपेक्षा से लिखा है, न कि असंयतगुणस्थान की अपेक्षा से। पुस्तक ४, पृष्ठ १७४ ६. शंका - पृष्ठ १७४ में 'एक्कम्हि इंदए सेढीबद्ध-पइण्णए च संहिदगामागार बहुविधबिल - का अर्थ - ‘एक ही इच्द्रक, श्रेणीबद्ध या प्रकीर्णक नरक में विद्यमान ग्राम, घर और बहुत प्रकार के बिलों में किया है । क्या नरक में भी ग्राम घर होते हैं ? बिले तो जरूर होते हैं। असल में 'गामागार' का अर्थ 'ग्राम के आकार वाले अर्थात् गांव के समान बहुत प्रकार के बिलों में ऐसा होना चाहिए ? (जैन सन्देश, ता. २३-४-४२) समाधान - सुझाया गया अर्थ भी माना जा सकता है, पर किया गया अर्थ गलत नहीं है, क्योंकि, घरों के समुदाय को ग्राम कहते हैं। समालोचक के कथनानुसार 'ग्राम के आकार वाले अर्थात् गांव के समान' ऐसा भी 'गामागार' पद का अर्थ मान लिया जाय तो भी उन्हीं के द्वारा उठाई गई शंका तो ज्यों की त्यों ही खड़ी रहती है, क्योंकि,ग्राम के आकारवालों को ग्राम कहने में कोई असंगति नहीं है। इसलिए इस सुझाए गए अर्थ में कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं होती। पुस्तक ४, पृ. १८० ७. शंका - पृ.१८० में मूल में एक पंक्ति में 'व' और 'ण' ये दो शब्द जोड़े गये हैं। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि 'घणरज्जु' में जो 'घण' शब्द है वह अधिक है और लेखकों की करामात से 'व ण' का 'घण' होगया है ? (जैन सन्देश ता. २३-४-४२) समाधान - प्रस्तुत पाठ के संशोधन करते समय हमें उपलब्ध पाठ में अर्थ की दृष्अि से 'व ण' पाठ का स्खलन प्रतीत हुआ । अतएव हमने उपलब्ध पाठ की रक्षा करते हुए हमारे नियमानुसार 'व' और 'ण' को यथास्थान कोष्ठक के अन्दर रख दिया । शंकाकार
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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