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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३१४ (१) जघन्य-परीत-अनन्त (न प ज) अनन्त नहीं होता जब तक उसमें प्रक्षिप्त किये गये छह द्रव्यों या चार राशियों में से एक या अधिक अनन्त न मान लिये जायें। (२) उत्कृष्ट-अनन्त-अनन्त (न न उ) केवलज्ञानराशि के समप्रमाण है। उपर्युक्त विवरण से यह अभिप्राय निकलता है कि उत्कृष्ट अनन्तानन्त अंकगणित की किसी प्रक्रिया द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता, चाहे वह प्रक्रिया कितनी ही दूर क्यों न ले जाई जाय । यथार्थत: वह अंकगणित द्वारा प्राप्त ज्ञ की किसी भी संख्या से अधिक ही रहेगा। अत: मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि केवलज्ञान अनन्त है, और इसीलिये उत्कृष्ट-अनन्तानन्त भी अनन्त है। इस प्रकार त्रिलोकसारान्तर्गत विवरण हमें कुछ संशय में ही छोड़ देता है कि परीतानन्त और युक्तानन्त के तीन-तीन प्रकार तथा जघन्य अनन्तानन्त सचमुच अनन्त है या नहीं, क्योंकि ये सब असंख्यात के ही गुणनफल कहे गये हैं, और जो राशियां उनमें जोड़ी गई हैं वे भी असंख्यात मात्र ही हैं। किन्तु धवला का अनन्त सचमुच अनन्त ही है, क्योंकि यहां यह स्पष्टत:कह दिया गया है कि 'व्यय होने से जो राशि नष्ट हो वह अनन्त नहीं कही जा सकती' १ । धवला में यह भी कह दिया गया है कि अनन्तानन्त से सर्वत्र तात्पर्य मध्यम-अनन्तानन्त से है । अत: धवलानुसार मध्यम-अनन्तानन्त अनन्त ही है । धवला में उल्लिखित दो राशियों के मिलान की निम्न रीति बड़ी रोचक है २ . __एक ओर गतकाल की समस्त अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी अर्थात् कल्पकाल के समयों को (Time-instants) स्थापित करो । (इनमें अनादि-सातस्य होने से अनन्तत्व है ही।) दूसरी ओर मिथ्यादृष्टि जीवराशि रक्खो । अब दोनों राशियों में से एक-एक रूप बराबर उठा उठा कर फेंकते जाओ । इस प्रकार करते जाने से कालराशि नष्ट हो जाती है, किन्तु जीवराशि का अपहार नहीं होता । धवला में इस प्रकार से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि मिथ्यादृष्टि राशि अतीत कल्पों के समयों से अधिक है। यह उपर्युक्त रीति और कुछ नहीं केवल एक से एक की संगति (one -to-one correspondence) का प्रकार है जो आधुनिक अनन्त गणनांकों के सिद्धान्त (Theory of infinite cardinals) का मूलाधार है । यह कहा जा सकता है कि यह रीति परिमित गणनांकों १ 'संते वए णटुंतस्स अणंतत्तविरोहादो' । ध.३, पृ. २५. २धवला ३, पृ. २८. ३ 'अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणी ण अवहिरंति कालेण'। ध. ३, पृ. २८ सूत्र ३. देखो टीका, पृ. २८. 'कधं कालेण मिणिज्जते मिच्छाइट्ठी जीवा' ? आदि।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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