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________________ ३१५ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका के मिलान में भी उपयुक्त होती है, और इसीलिये उसका आलम्बन दो बड़ी परिमित राशियों के मिलान के लिये लिया गया था - इतनी बड़ी राशियां जिनके अंगों (elements) की गणना किसी संख्यात्मक संज्ञा द्वारा नहीं की जा सकी । यह दृष्टिकोण इस बात से और भी पुष्ट होता है कि जैन-ग्रंथों के समय के अध्वान का भी निश्चय कर दिया गया है, और इसलिये एक कल्प (अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी) के कालप्रदेश परिमित ही होना चाहिये, क्योंकि, कल्प स्वयं कोई अनन्त कालमान नहीं है । इस अन्तिम मत के अनुसार जघन्य-परीतअनन्त, जो कि परिभाषानुसार कल्प के कालप्रदेशों की राशि से अधिक है, परिमित ही है । ___ जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, एक से एक की संगति की रीति अनन्त गणनांकों के अध्ययन के लिये सबसे प्रबल साधन सिद्ध हुई है, और उस सिद्धान्त के अन्वेषण तथा सर्वप्रथम प्रयोग का श्रेय जैनियों को ही है। संख्याओं के उपर्युक्त वर्गीकरण में मुझे अनन्त गणनांकों के सिद्धान्त को विकसित करने का प्राथमिक प्रयत्न दिखाई देता है । किन्तु इस सिद्धान्त में कुछ गंभीर दोष हैं। ये दोष विरोध उत्पन्न करेंगे । इनमें से एक स - १ की संख्या की कल्पना का है, जहां स अनन्त है और एक वर्ग की सीमा का नियामक है । इसके विपरीत जैनियों का यह सिद्धान्त कि एक संख्या स का वर्गित-संवर्गित रूप अर्थात् स स एक नवीन संख्या उत्पन्न कर देता है, युक्तपूर्ण है । यदि यह सच हो कि प्राचीन जैन साहित्य का उत्कृष्ट-असंख्यात अनन्त से मेल खाता है, तो अनन्त की संख्याओं की उत्पत्ति में आधुनिक अनन्त गणनांकों के सिद्धान्त (Theory of infinite cardinals) का कुछ सीमा तक पूर्वनिरूपण हो गया है । गणितशास्त्रीय विकास के उतने प्राचीन काल और उस प्रारम्भिक स्थिति में इस प्रकार के किसी भी प्रयत्न की असफलता अवश्यंभावी थी । आश्चर्य तो यह है कि ऐसा प्रयत्न किया गया था। _अनन्त के अनेक प्रकारों की सत्ता को जार्ज केन्टर ने उन्नीसवीं शताब्दि के मध्यकाल के लगभग प्रयोग-सिद्ध करके दिखाया था। उन्होंने सीमातीत (transfinite) संख्याओं का सिद्धान्त स्थापित किया। अनन्त राशियों के क्षेत्र (domain) के विषय में कैन्टर के अन्वेषणों से गणितशास्त्र के लिये एक पुष्ट आधार, खोज के लिये एक प्रबल साधन और गणितसंबंधी अत्यन्त गूढ विचारों को ठीक रूप से व्यक्त करने के लिये एक भाषा मिल गई है । तो भी यह सीमातीत संख्याओं का सिद्धांत अभी अपनी प्राथमिक अवस्था में ही है । अभी तक इन संख्याओं का कलन (Calculus) प्राप्त नहीं हो पाया है, और इसलिये हमें उन्हें अभी तक प्रबलता से गणितशास्त्रीय विश्लेषण में नहीं उतार सके
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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