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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३०४ गणना' करके उसकी व्यक्ति इसप्रकार की गई है - १३६.२२५६ तथा, रूढ़ संख्याओं के विकलन (Distribution of Primes ) को सूचित करने वाली स्कयूज संख्या (Skewes' Number) निम्न प्रकार से व्यक्त की जाती है । १० १० १०२४ संख्याओं को व्यक्त करने वाले उपर्युक्त समस्त प्रकारों का उपयोग धवला में किया गया है। इससे स्पष्ट है कि भारत वर्ष में उन प्रकारों का ज्ञान सातवीं शताब्दि से पूर्व ही सर्व साधारण हो गया था । अनन्त का वर्गीकरण धवला में अनन्त का वर्गीकरण पाया जाता है । साहित्य में अनन्त शब्द का उपयोग अनेक अर्थो में हुआ है। जैन वर्गीकरण में उन सबका ध्यान रखा गया है। जैन वर्गीकरण के अनुसार अनन्त के ग्यारह प्रकार हैं। जैसे - (१) नामानन्त नाम का अनन्त । किसी भी वस्तु- समुदाय के यथार्थत: अनन्त होने या न होने का विचार किये बिना ही केवल उसका बहुत्व प्रगट करने के लिये साधारण बोलचाल में अथवा अबोध मनुष्यों द्वारा या उनके लिये, अथवा साहित्य में, उसे अनन्त कह दिया जाता है। ऐसी अवस्था में 'अनन्त' शब्द का अर्थ नाम मात्र का अनन्त है । इसे ही नामानन्त कहते हैं । १ - (२) स्थापनानन्त आरोपित या आनुषंगिक, या स्थापित अनन्त । यह भी यथार्थ अनन्त नहीं है। जहां किसी वस्तु में अनन्त का आरोपण कर लिया जाता है वहां इस शब्द का प्रयोग किया जाता है । २ - इससे देखा जा सकता है कि २ का तृतीय वर्गित संवर्गित अर्थात् २५६२५६ विश्वभर के समस्त विद्युत कणों की संख्या से अधिक होता है। यदि हम समस्त विश्व को एक शतरंज का फलक मान लें और विद्युतकणों को उसकी गोटियां, और दो विद्युतकणों की किसी भी परिवृत्ति को इस विश्व के खेल की एक 'चाल' मान लें, तो समस्त संभव 'चालो' की संख्या - १०१०१०२४ होगी। यह संख्या रूढ संख्याओं (primes) के विभाग (distribution) से भी संबंध रखती है। १ जीवाजीवमिस्सदव्वस्स कारणणिरवेक्खा सण्णा अणंता । धवला ३, पृ. ११. २. जं ट्ठवणाणंतं णाम तं कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा अक्खो वा वराडयो वा जेच अण्णे ह्वणाए विदा अणंतमिदि तं सव्वं ट्ठवणाणंतं णाम । ध. ३, पृ. ११ से १२. .....
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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