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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ३०५ (३) द्रव्यानन्त' - तत्काल उपयोग में न आते हुए ज्ञान की अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञा का उपयोग उन पुरुषों के लिये किया जाता है जिन्हें अनन्त-विषयक शास्त्र का ज्ञान है, जिसका वर्तमान में उपयोग नहीं है । (४) गणनानन्त - संख्यात्मक अनन्त । यह संज्ञा गणितशास्त्र में प्रयुक्त वास्तविक अनन्त के अर्थ में आई है। (५) अप्रदेशिकानन्त - परिमाणहीन अर्थात् अत्यन्त अल्प परमाणुरूप । (६) एकानन्त - एकदिशात्मक अनन्त । यह बात अनन्त है जो एक दिशा में सीधी एक रेखारूप से देखने में प्रतीत होता है। (७) विस्तारानन्त - द्विविस्तारात्मक अथवा पृष्ठप्रदेशीय अनन्त । इसका अर्थ है प्रतरात्मक अनन्ताकाश । (८) उभयानन्त - द्विदिशात्मक अनन्त । इसका उदाहरण है एक सीधी रेखा जो दोनों दिशाओं में अनन्त तक जाती है । (९) सर्वानन्त - आकाशात्मक अनन्त । इसका अर्थ है त्रिधा-विस्तृत अनन्त, अर्थात् धनाकार अनन्ताकाश । (१०) भावानन्त - तत्काल उपयोग में आते हुए ज्ञान की अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञा का उपयोग उस पुरुष के लिये किया जाता है जिसे अनन्त-विषयक शास्त्र का ज्ञान है और जिसका उस ओर उपयोग है। (११) शाश्वतानन्त - नित्यस्थायी या अविनाशी अनन्त । पूर्वोक्त वर्गीकरण खूब व्यापक है जिसमें उन सब अर्थो का समावेश हो गया है जिन अर्थो की 'अनन्त' संज्ञा का प्रयोग जैन साहित्य में हुआ है। गणनानन्त (Numerical infinite) धवला में यह स्पष्ट रूप से कह दिया गया है कि प्रकृत में अनन्त संज्ञा का प्रयोग गणनानन्त के अर्थ में ही किया गया है, अन्य अनन्तों के अर्थ में नहीं, 'क्योंकि उन अन्य अनन्तों के द्वारा प्रमाण का प्ररूपण नहीं पाया जाता। यह भी कहा गया है कि 'गणनानन्त १ जंतं दव्वाणंतं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । ध. ३, पृ. १२ २ धवला ३, पृ. १६. ३ ण च सेसअणंताणि पमाणपरूवणाणि, तत्थ तधादसणादो' । ध.३, पृ.१७.
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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