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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २९१ यह पूर्व ही बताया जा चुका है कि आर्यभटीय में प्राप्त गणितशास्त्र विशेष उन्नत है, क्योंकि उसमें हमको निम्नलिखित विषयों का उल्लेख मिलता है - वर्तमानकालीन प्राथमिक अंकगणित के सब भाग जिनमें अनुपात, विनिमय और ब्याज के नियम भी सम्मिलित हैं, तथा सरल और वर्ग समीकरण, और सरल कुट्टक (Indeterminat equations) की प्रक्रिया तक का बीजगणित भी है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या आर्यभट ने अपना गणितज्ञान विदेश से ग्रहणकिया, अथवा जो भी कुछ सामग्री आर्यभटीय में अन्तर्हित है वह सब भारतवर्ष की ही मौलिक सम्पत्ति है ? आर्यभट लिखते हैं "ब्रह्म, पृथ्वी, चंद, बुध, शुक्र, सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शनि और नक्षत्रों को नमस्कार करके आर्यभट उस ज्ञान का वर्णन करता है जिसका कि यहां कुसुमपुर में आदर है ।" इससे पता चलता है कि उसने विदेश से कुछ ग्रहण नहीं किया। दूसरे देशों के गणितशास्त्र के इतिहास के अध्ययन से भी यही अनुमान होता है, क्योंकि आर्यभटीय गणित संसार के किसी भी देश के तत्कालीन गणित से बहुत आगे बढ़ा हुआ था । विदेश से ग्रहण करनेकी संभावना को इस प्रकार दूर कर देने पर प्रश्न उपस्थित होता है कि आर्यभट से पूर्वकालीन गणितशास्त्र संबंधी कोई ग्रंथ उपलब्ध क्यों नहीं है ? इस शंका का निवारण सरल है । दाशमिकक्रम का आविष्कार I सन्के प्रारंभ काल के लगभग किसी समय हुआ था । इसे सामान्य प्रचार में आने के लिये चार पांच शताब्दियां लग गई होंगी । दाशमिक क्रम का प्रयोग करने वाला आर्यभट का ग्रंथही सर्वप्रथम अच्छा ग्रंथ प्रतीत होता है । आर्यभट के ग्रंथ से पूर्व के ग्रंथों में या तो पुरानी संख्यापद्धति का प्रयोग था, अथवा, वे समय की कसौटी पर ठीक उतरने लायक अच्छे नहीं थे । गणित की दृष्टि से आर्यभट की विस्तृत ख्याति का कारण, मेरे मतानुसार, बहुतायत से यही था कि उन्होंने ही सर्वप्रथम एक अच्छा ग्रन्थ रचा, जिसमें दाशमिकक्रम का प्रयोग किया गया था। आर्यभट के ही कारण पुरानी पुस्तकें अप्रचलित और विलीन हो गई । इससे साफ पता चल जाता है कि सन् ४९९ के पश्चात् लिखी हुई तो हमें इतनी पुस्तकें मिलती हैं, किन्तु उसके पूर्व के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । इस प्रकार सन् ५०० ईसवी से पूर्व के भारतीय गणितशास्त्र के विकास और उन्नति का चित्रण करने के लिये वास्तव में कोई साधन हमारे पास नहीं है। ऐसी अवस्था १. ब्रम्हकुशशिबुधभृगुरविकुजगुरुकोणभगणान्नमस्कृत्य । आर्यभटस्त्विह निगदति कुसुमपुरेऽभ्यर्चितं ज्ञानम् ॥ आर्यभटीय २, १. ब्रह्मभूमिनक्षत्रगणान्नमस्कृत्य कुसुमपुरे कुसुमपुराख्येऽस्मिन्देशे अभ्यर्चितं ज्ञानं कुसुमपुरवासिमि: पूजितं ग्रहगतिज्ञानसाधनभूतं तन्त्रमार्यभटो निगदति । (परमेश्वराचार्यकृत टीका)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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