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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २९० से आये हुए ग्रन्थों की सामान्य रूपरेखा तो एक सी है, किन्तु विस्तार संबंधी विशेष बातों उनमें विभिन्नता इससे पता चलता है कि भिन्न-भिन्न शाखाओं में आदान-प्रदान का संबंध था, छात्रगण और विद्वान एक शाखा से दूसरी शाखा में गमन करते थे, और एक स्थान में किये गये आविष्कार शीघ्र ही भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक विज्ञापित कर दिये जाते थे । प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रचार ने विविध विज्ञानों और कलाओं के अध्ययन को उत्तेजना दी । सामान्यतः सभी भारतवर्षीय धार्मिक साहित्य, और मुख्यतया बौद्ध व जैन साहित्य, बड़ी-बड़ी संख्याओं के उल्लेखों से परिपूर्ण है। बड़ी संख्याओं के प्रयोग ने उन संख्याओं को लिखने के लिये सरल संकेतों की आवश्यकता उत्पन्न की, और उसी से दाशमिक क्रम (The place-value system of notation) का आविष्कार हुआ । अब यह बात निस्संशय रूप से सिद्ध हो चुकी है कि दाशमिक क्रम का आविष्कार भारत में ईस्वीसन् के प्रारंभ काल के लगभग हुआ था, जबकि बौद्धधर्म और जैनधर्म अपनी चरमोन्नति पर थे। यह नया अंक - क्रम बड़ा शक्तिशाली सिद्ध हुआ, और इसी ने गणितशास्त्र को गतिप्रदान कर सुल्वसूत्रों में प्राप्त वेदकालीन प्रारंभिक गणित को विकास की ओर बढ़ाया, और बराहमिहिर के ग्रंथों में प्राप्त पांचवी शताब्दी के सुसम्पन्न गणितशास्त्र में परिवर्तित कर दिया । एक बड़ी महत्वपूर्ण बात, जो गणित के इतिहासकारों की दृष्टि में नहीं आई, यह है कि यद्यपि हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों का सामान्य साहित्य ईसा से पूर्व तीसरी व चौथी शताब्दी से लगाकर मध्यकालीन समय तक अविच्छिन्न हैं, क्योंकि प्रत्येक शताब्दी के ग्रंथ उपलब्ध हैं, तथापि गणितशास्त्र संबंधी साहित्य में विच्छेद हैं । यथार्थत: सन् ४९९ में रचित आर्यभटीय से पूर्व की गणिशास्त्र संबंधी रचना कदाचित् ही कोई हो । अपवाद में बख्शालि प्रति (Bakhsali Manuscript) नामक वह अपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथ ही है जो संभवत: दूसरी या तीसरी शताब्दी की रचना है । किन्तु इसकी उपलब्ध हस्तलिखित प्रति हमें उस काल के गणित ज्ञान की स्थिति के विषय में कोई विस्तृत वृत्तान्त नहीं मिलता, क्योंकि यथार्थ में यह आर्यभट, ब्रह्मगुप्त अथवा श्रीधर आदि के ग्रंथों के सदृश गणितशास्त्र की पुस्तक नहीं है। वह कुछ चुने हुए गणितसंबंधी प्रश्नों की व्याख्या अथवा टिप्पणी सी है। इस हस्तलिखित प्रति से हम केवल इतना ही अनुमान कर सकते हैं कि दाशमिकक्रम और तत्संबंधी अंकगणित की मूल प्रक्रियायें उस समय अच्छी तरह विदित थीं, और पीछे के गणितज्ञों द्वारा उल्लिखित कुछ प्रकार के गणित प्रश्न (Problems) भी ज्ञात थे ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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