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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २८१ इन एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवों के अतिरिक्त सयोगिके वली भगवान् भी प्रतरसमुद्धात के समय लोक के असंख्यात बहु भागों को और लोकपूरणसमुद्धात के समय सर्व लोकाकाश को स्पर्श करते हैं। तथा उपपाद और मारणान्तिक समुद्धातवाले त्रसजीवों का भी त्रसनाली के बाहर अस्तित्व पाया जाता है । वह इस प्रकार से कि लोक के अन्तिम वातवलय में स्थित कोई जीव मरण करके विग्रहगति द्वारा त्रसनाली के अन्त:स्थित त्रसपर्याय में उत्पन्न होने वाला है वह जीव जिस समय मरण करके प्रथम मोड़ा लेता है, उस समय त्रसपर्याय को धारण करने पर भी वह त्रसनाली के बाहर है, अतएव उपपाद की अपेक्षा त्रसजीव त्रसनाली के बाहर रहता है। इसी प्रकार त्रसनाली में स्थित किसी ऐसे त्रसजीवने जिसे कि त्रसनाली के बाहर मरकर उत्पन्न होना है, मारणान्तिकसमुद्धात के द्वारा त्रसनाली के बाहर के आकाश-प्रदेशों का स्पर्श किया, तो उस समय भी त्रसजीवका अस्तित्व त्रसनाली के बाहर पाया जाता है, (देखो. पृ. २१२) । उक्त तीन अवस्थाओं को छोड़कर शेष त्रसजीव त्रसनाली के बाहर कभी नहीं रहते हैं। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों में उक्त स्वस्थानादि दश पदों को प्राप्त जीवों का स्पर्शनक्षेत्र इस स्पर्शनप्ररूपणा में बतलाया गया है । स्पर्शनप्ररूपणा की कुछ विशेष बातें ___सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का क्षेत्र निकालते हुए प्रसंगवश असंख्यात द्वीपसमुद्रों के ऊपर आकाश में स्थित समस्त चंद्रों के प्रमाण को भी गणितशास्त्र के अनेक अदृष्टपूर्व करणसूत्रों के द्वारा निकाला गया है और साथ ही यह बतलाया गया है कि एक चंद्र के परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और छयासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोड़ाकोड़ी (६६९७५००००००००००००००) तारे होते हैं। इस चारों प्रकार के परिवार के प्रमाण से चन्द्रबिम्बों की संख्या को गुणा कर देने पर समस्त ज्योतिष्क देवों का प्रमाण निकल आता है। इसी बीच में धवलाकार ने ज्योतिष्क देवों के भागहार को उत्पन्न करने वाले सूत्र से अवलम्बित युक्ति के बल से यह सिद्ध किया है कि चूंकि-स्वयंभूरमण समुद्र के परभाग में भी राजु के अर्धच्छेद पाये जाते हैं, इसलिए स्वयंभूरमणसमुद्र के परभाग में भी असंख्यात द्वीप-समुद्रों के व्यास-रुद्ध योजनों से संख्यात हजार गुने योजन आगे जाकर तिर्यग्लोक की समाप्ति होती है, अर्थात् स्वयंभू रमणसमुद्र की बाह्यवेदिका के परे भी पृथिवी का अस्तित्व है वहां भी राजु के अर्धच्छेद उपलब्ध होते हैं; किन्तु वहां पर ज्योतिषी देवों के विमान नहीं (देखो पृ. १५०-१६०) हैं
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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