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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २८० चौदह (४) या बारह बटे चौदह (११) भाग बताया गया है। इनमें से विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों ने उक्त त्रसनाली के चौदह भागों में से आठ भागों को स्पर्श किया है, अर्थात् आठ घनराजु प्रमाण त्रसनाली के भीतर ऐसा एक भी प्रदेश नहीं है कि जिसे अतीतकाल में सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों ने (देव, मनुष्य, तिर्यच और नारकी, इन सभी ने मिलकर) स्पर्श न किया हो । यह आठ घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्रसनाली के भीतर जहां कहीं नहीं लेना चाहिए, किन्तु नीचे तीसरी वालुका पृथिवी से लेकर ऊपर सोलहवें अच्युतकल्प तक लेना चाहिये । इसका कारण यह है कि भवनवासी देव स्वत: नीचे तीसरी पृथिवी तक विहार करते हैं, और ऊपर सौधर्मविमान के शिरध्वजदंड तक । किन्तु उपरिम देवों के प्रयोग से ऊपर अच्युतकल्प तक भी विहार कर सकते हैं (देखो, पृ.२२९) । उनके इतने क्षेत्र में विहार करने के कारण उक्त क्षेत्र का मध्यवर्ती एक भी आकाश प्रदेश ऐसा नहीं बचा है कि जिसे अतीत काल में उक्त गुणस्थानवर्ती देवों ने स्पर्श न किया हो । इस प्रकार इस स्पर्श किये क्षेत्र को लोकनाली के चौदह भागों में से आठ भाग प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धात की अपेक्षा उक्त गुणस्थानवी जीवों ने लोकनाली के चौदहभागों में से बारह भाग स्पर्श किये हैं। इसका अभिप्राय यह है कि छठी पृथिवी के सासादनगुस्थानवर्ती नारकी मध्यलोक तक मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, और सासदनसम्यम्दृष्टि भवनवासी आदि देव आठवी पृथिवी के ऊपर विद्यमान पृथिवीकायिक जीवों में मारणान्तिकसमुद्धात कर सकते हैं, या करते हैं । इस प्रकार मेरुतल से छठी पृथिवी तक के ५ राजु और ऊपर लोकान्त तक के ७ राजु, दोनों मिलाकर १२ राजु हो जाते हैं । यही बारह घनराजुप्रमाण क्षेत्र त्रसनाली के बारह बटे चौदह (२४) भाग, अथवा बसनाली के चौदह भागों में से बारह भाग प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र कहा जाता है । इस उक्त प्रकार से बतलाए गए स्पर्शन क्षेत्र को यथासंभव जान लेना चाहिए। ध्यान रखने की बात केवल इतनी ही है कि वर्तमानकालिक स्पर्शनक्षेत्र तो लोकके असंखयातवें भागप्रमाण ही होता है, किन्तु अतीतकालिक स्पर्शनक्षेत्र त्रसनाली के चौदह भागों में से यथासंभव २४, २४ को आदि लेकर १४ तक होता है । तथा मिथ्यादृष्टि जीवों का मारणान्तिक,वेदना, कषायसमुद्धात आदि की अपेक्षा सर्वलोक स्पर्शनक्षेत्र होता है, क्योंकि, सारे लोककर्म में सर्वत्र ही एकेन्द्रिय जीव ठसाठस भरे हुए हैं और गमनागमन कर रहे हैं, अतएव उनके द्वारा समस्त लोकाकाश वर्तमान में भी स्पर्श हो रहा है और अतीतकाल में भी स्पर्श किया जा चुका है।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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