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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २८२ इसी प्रकरण में उन्होंने अपनी उक्त बात की पुष्टि करते हुए जो उदाहरण दिए हैं, उनसे एकदम तीन ऐसी बातों पर प्रकाश पड़ता है, जिनसे पता चलता है कि वे बातें वीरसेनाचार्य के पूर्ववर्ती दिगम्बर साहित्य में प्रतिष्ठित नहीं थीं और सर्व प्रथम इन्हींने उनकी प्रतिष्ठा की है। वे नवीन प्रतिष्ठित तीनों बातें इस प्रकार हैं - १. 'संख्यात आवलियों का एक अन्तर्मुहूर्त होता है' इस प्रचलित और सर्वमान्य मान्यता को भी 'एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' (द्रव्यप्र. सू ६) इस सूत्र के आधार से 'अन्तर्मुहूर्त' इस पद में पड़े हुए अन्तर शब्द को सामीप्यार्थक मानकर यह सिद्ध किया है कि अन्तर्मुहूर्त का अभिप्राय मुहूर्त से अधिक काल का भी हो सकता है । २. दूसरी बात आयतचतुरस्त्र लोक-संस्थान के उपदेश की है, जिसका अभिप्राय समझने के लिये इसी भाग के पृ. ११ से २२ तक का अंश देखिए । उससे ज्ञात होता है कि धवलाकार के सामने विद्यमान करणानुयोगसम्बन्धी साहित्य में लोक के आयतचतुरस्राकार होने का विधान या प्रतिषेध कुछ भी नहीं मिल रहा था, तो भी उन्होंने प्रतरमुद्धातगत केवली के क्षेत्र के साधनार्थ कही गई दो गाथाओं के (देखो इसी भाग के पृ. २०-२१) आधार पर यही सिद्ध किया है कि लोक का आकार आयतचतुष्कोण है, न कि अन्य आचार्यों से प्ररूपित १६४.२८ घनराजु प्रमाण मृदंग के आकार का । साथ ही उनका दावा है कि यदि ऐसा न माना जायगा तो उक्त दोनों गाथाओं को अप्रमाणता और लोक में ३४३ घनराजुओं का अभाव प्राप्त होगा। इसलिए लोक का आकार आयतचतुस्र ही मानना चाहिए। . ३. तीसरी बात स्वयंभूरमण समुद्र के परभाग में पृथिवी के अस्तित्व सिद्ध करने की है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। (देखो पृ. १५५ - १५८ तक) . इस प्रकार बड़े जोरदार शब्दों में उक्त तीनों बातों का समर्थन करने के पश्चात् भी उनकी निष्पक्षता दर्शनीय है । वे लिखते हैं - 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार एकान्त हठ पकड़कर के असद आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, परमगुरुओं की परम्परा से आये हुए उपदेशको युक्ति के, बल से अयथार्थ सिद्ध करना अशक्य है, तथा अतीन्द्रिय पदार्थों में छद्मस्थ जीवों के द्वारा उठाए गए विकल्पों के अविसंवादी होने का नियम नहीं है। अतएव पुरातन आचार्यों के व्याख्यान का परित्याग न करके हेतुवाद (तर्कवाद) के अनुसरण करने वाले व्युत्पन्न शिष्यों के अनुरोध से तथा अव्युत्पन्न शिष्यजनों के व्युत्पादन के लिये यह दिशा भी दिखाना चाहिए। (देखो. पृ.१५७-१५८)
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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