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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२६९ माना जाय तो उक्त अवस्था में भूमंडलादि के घमते हुए दिखने का कोई कारण नहीं रह जाता । इसलिये आचार्य कहते हैं कि 'आत्मप्रदेशों के भ्रमण करते समय द्रव्येन्द्रियप्रमाण आत्मप्रदेशों का भी भ्रमण स्वीकार कर लेना चाहिये' । आधुनिक मान्यतासम्बन्धी भूभ्रमणका तो दर्शन किसी को किसी अवस्था में भी होता नहीं है । इसलिये यहां उस भूमिभ्रमण का कोई उल्लेख नहीं प्रतीत होता। पुस्तक २, पृ. ४२३.
२. शंका - नकशा नं. २ में प्राण के खाने में सयोगिकेवली की अपेक्षा २ प्राण भी होना चाहिये ?
(रतनचंद जी मुख्तार, सहारनपुर. पत्र ३.४.४१) समाधान- प्रस्तुत प्रकरण में अपर्याप्त जीवों के सामान्य आलाप बतलाए गए हैं, जिनमें क्रमश: संज्ञी पंचेन्द्रिय से लगाकर एकेन्द्रिय तक के समस्त जीवों की विवक्षा है, केवलिसमुद्धात जैसी विशेष अवस्थाओं की यहां विवक्षा नहीं है। इसी कारण शंकाकार द्वारा बतलाये गये २ प्राण न मूल टीका में कहे गये, न अनुवाद में लिये गये, और न उक्त नकशे में दिखाये गये । किन्तु पृष्ठ नं. ४४४ नकशा नं. २५ पर जहां सयोगिकेवली के ही आलाप बतलाये गये हैं, वहां पर साधारण अवस्था में होने वाले चार प्राणों का और विशेष अवस्था में होने वाले उक्त दो प्राणों का उल्लेख किया ही गया है। पुस्तक २, पृ. ४३२ - ४३५
३. शंका - अर्थ में तथा नकशा नं. १४, १५, १६ और १७ में वेद के आलाप में जो तीन वेद कहे हैं सो वहां ३ भाव वेद कहना चाहिये ।
(नानकचंद जी, खतौली, पत्र ता. १०.११.४१) समाधान - नकशा नं. १४, १५, १६, १७ संबंधी आलापों में तथा इससे आगे पीछे के सभी आलापों में भाववेद की ही विवक्षा की गई है । धवलाकार ने लेश्या आलाप में जैसे द्रव्यलेश्या और भावलेश्या का विभाग कर पृथक पृथक् वर्णन किया है, वैसा वेद आलाप में द्रव्यवेद और भाव वेद का विभाग कर मूल में कहीं वर्णन नहीं किया है । अत: उक्त नकशों में भी भाववेद लिखने की आवश्यकता नहीं समझी, यद्यपि तात्पर्य यहाँ तथा अन्यत्र भाववेद से है। पुस्तक २, पृ. ४३४
___ ४. शंका - पृष्ठ ४३३ पर जो प्रमत्तसंयत पर्याप्त तथा अपर्याप्त का कथन है, उनके यंत्र क्यों नहीं बनाए गए ? (नानकचंद जी, खतौली, पत्र ता. ११-११-४१)