________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२६८ वर्षों में इन उत्तमोत्तम सिद्धान्त ग्रंथों का पठन-पाठन नहीं हुआ और उनका जैन साहित्य के निर्माण में जब जितना उपयोग होना चाहिये था, नहीं हुआ । यही नहीं, इनकी एक मात्र
अवशिष्ट प्रतियां भी धीरे-धीरे विनष्ट होने लगी थीं। महाधवल की प्रति में से कितने ही पत्र अप्राप्य हैं और कितने ही छिद्रित हो जाने से उनमें पाठ स्खलन उत्पन्न हो गये हैं। यह जो लिखा है कि इन सिद्धान्त ग्रंथों की कापियां करा कराके जगह जगह विराजमान करा दी जानी चाहिए, सो ये कापियाँ कौन करेगा ? श्रावक ही तो ? या मुनिजनों को दिया जायगा, सो भी अल्पबुद्धि नहीं, विद्धान मुनियों को ? यथार्थत: गृहस्थों द्वारा ही तो उनकी प्रतिलिपियां की गई, और की जा सकती हैं, तथा गृहस्थों द्वारा ही उनका जो कुछ उद्धारसंभव है, किया जा रहा है । इसमें न तो कोई दृषण है, न बिगाड़। अब तो जैन सिद्धान्त को समस्त संसार में घोषित करने का यही उपाय है । हाथ कंकन को आरसी क्या ?
...२. शंका का समाधान पुस्तक १, पृष्ठ २३४
१. शंका - 'तभ्रमणमंतरेणाशुभ्रमज्जीवानां भ्रमद्भूम्यादिदर्शनानुपपत्तेः इति'। इस वाक्य का अर्थ मुझे स्पष्ट नहीं हो सका । उसमें पृथ्वी के परिभ्रमण का उल्लेख सा प्रतीत होता है । उसका अर्थ खोलकर समझाने की कृपा कीजिये।
(नेमीचंद जी वकील, सहारनपुर, पत्र २४.११.४१) समाधान - प्रस्तुत प्रकरण में शंका यह उठाई गई है कि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीवप्रदेशों का भ्रमण नहीं होता, ऐसा क्यों न मान लिया जाय, क्योंकि, सर्व जीव-प्रदेशों के भ्रमण मानने पर उनके शरीर के सम्बन्ध-विच्छेद का प्रसंग आता है ? इस शंका का उत्तर आचार्य इस प्रकार देते हैं ' यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव-प्रदेशों का भ्रमण नहीं माना जावे, तो अत्यन्त द्रुतगति से भ्रमण करते हुए जीवों का भ्रमण करती हुई पृथिवी आदि का ज्ञान नहीं हो सकता है।' इसका अभिप्राय यह है कि जब कोई व्यक्ति शीघ्रता से चक्कर लेता है तो उसे कुछ क्षण के लिये अपने आस-पास चारों ओर का समस्त भूमंडल पृथिवी, पर्वत, वृक्ष, गृहादि घूमता हुआ दिखाई देता है । इसका कारण उपर्युक्त समाधान में यह सूचित किया गया है, कि उस व्यक्तिक शीघ्रता से चक्कर लेने की अवस्था में उसके जीव प्रदेश भी शरीर के भीतर ही भीतर शीघ्रता से भ्रमण करने लगते हैं, जिसके कारण उसे पृथिवी आदि सब घूमते हुए दिखाई देने लगते हैं। यदि द्रव्येन्द्रियप्रमाण जीव प्रदेशों को स्थिर