SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २६७ को पढ़ने का निषेध है, तो वह अर्थ या विषय की दृष्टि से है कि भाषा की दृष्टि से, यह भी विचार कर लेना चाहिए | धवलादि सिद्धान्तग्रंथों की भाषा की दृष्टि से, यह भी विचारकर लेना चाहिए। धवलादि सिद्धान्त ग्रंथों की भाषा वही है जो कुंदकुंदाचार्यादि प्राकृत ग्रंथकारों की रचनाओं में पाई जाती है, जिसके अनेक व्याकरण आदि भी हैं । अतएव भाषा की दृष्टि से नियंत्रण लगाने का कोई कारण नहीं दिखता। यदि विषय की दृटि से देखा जाय तो यहां की तत्वचर्चा भी वही है जो हमे तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रंथों में मिलती है। फिर उसी चर्चा को गृहस्थ इन ग्रंथों में पढ़ सकता है, लेकिन उन ग्रंथों में नहीं, यह कैसी बात ? यदि सिद्धान्त - पठन का निषेध है तो ये सब ग्रंथ भी उस निषेध-कोटि में आवेंगे । जब सिद्धान्ताध्ययन के निषेध वाले उपर्युक्त अत्यंत आधुनिक पुस्तकों को सिद्धान्त के पर्यायवाची शब्द आगम से उल्लिखित किया जा सकता है, त एक अत्यन्त हीन दलील के पोषण - निमित्त गोम्मटसार व सर्वार्थसिद्धि जैसे ग्रन्थों को सिद्धान्तबाह्य कह देना चरमसीमा का साहस और भारी अविनय है । यथार्थत: सवार्थसिद्धि तो कर्मप्राभृत के ही सूत्रों का अक्षरश: उसी क्रम से संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, जैसा कि धवला के प्रकाशित भागों के सूत्रों और उनके नीचे टिप्पणों में दिये गये सवार्थसिद्धि अवतरणों में सहज ही देख सकते हैं। राजवार्तिक आदि ग्रंथों को धवलाकर ने स्वयं बड़े आदर से अपने मतों की पुष्टि में प्रस्तुत किया है। गोम्मटसार तो धवलादि का सारभूत ग्रंथ ही है, जिसकी गाथाएं की गाथाएं सीधी वहां से ली गई हैं। उसके सिद्धान्त रूप से उल्लेख किये जाने का एक प्रमाण भी ऊपर दिया जा चुका है। ऐसी अवस्था में इन पूज्य ग्रंथों को 'सिद्धान्त नहीं है' ऐसा कहना बड़ा ही अनुचित है। मैं इस विषय को विशेष बढ़ाना अनावश्यक समझता हूं, क्योंकि, उक्त निषेध के पक्ष में न प्राचीन ग्रंथों का बल है और न सामान्य युक्ति या तर्क का । जान पड़ता है, जिस प्रकार वैदिक धर्म के इतिहास में एक समय वेद के अध्ययन का द्विजों के अतिरिक्त दूसरों को निषेध किया गया था, उसी प्रकार जैन सामज के गिरती के समय में किसी 'गुरु' ने अपने अज्ञान को छुपाने के लिये यह सार - हीन और जैन उदार नीति के विपरीत बात चला दी, जिसकी गतानुगतिक थोड़ी सी परम्परा चलकर आज तक सद्ज्ञान के प्रचार में बाधा उत्पन्न कर रही है । सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र और चामुण्डरायजी के विषय में जो कथा कही जाती है वह प्राचीन किसी भी ग्रंथ में नहीं पाई जाती और पीछे की निराधार निरी कल्पना प्रतीत होती है। ऐसी ही निराधार कल्पनाओं का यह परिणाम हुआ कि गत सैकड़ों
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy