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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२६३ इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थ को सिद्धान्त-ग्रंथों का निषेध करने वाले ग्रंथों में जिन रचनाओं का समय निश्चयत: ज्ञात है वे १३ हवीं शताब्दि से पूर्व की नहीं हैं। उनमें सिद्धान्त का अर्थ भी स्पष्ट नहीं किया गया और जहां किया गया है वहां पूर्वापर-विरोध पाया जाता है । कोई उचित युक्ति या तर्क भी उनमें नहीं पाया जाता । यह तो सुज्ञात ही है कि जिन ग्रंथों में पूर्वा पर विरोध या विवेक वैपरीत्य पाया जावे वे प्रामाणिक आगम नहीं कहे जा सकते । इन्द्रनन्दि के वाक्यों का तो सीधे सिद्धान्त ग्रंथों के ही वाक्यों से विरोध पाया जाता है, अत: वह प्रामाणिक किस प्रकार गिना जा सकता है ? यथार्थत: प्रमाणिक जैन शास्त्रों की रचना और शासन के प्रवर्तन का चरमोन्नत काल तो उक्त समस्त ग्रंथों की रचना से पूर्ववर्ती ही है । तब क्या कारण है कि इससे पूर्व के ग्रंथों में हमें गृहस्थ के सिद्धान्त ग्रंथों के अध्ययन के सम्बन्ध में किसी नियंत्रण का उल्लेख नहीं मिलता ? श्रावकाचार का सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरि ने 'अक्षयसुखावह' और प्रभाचन्द ने 'अखिल सागारमार्ग को प्रकाशित करने वाला निर्मल सूर्य' कहा है। इस ग्रंथ में श्रावकों के अध्ययन पर कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया, किन्तु इसके विपरीत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र को सम्पादन करना ही गृहस्थ का सच्चा धर्म कहा है, तथा ज्ञान-परिच्छेद में, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग सम्बन्धी समस्त आगम का स्वरूप दिखाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका अध्ययन गृहस्थ के लिये हितकारी है। द्रव्यानयोग का अर्थ भी वहां टीकाकार प्रभाचन्द्र जी ने 'द्रव्यानुयोग सिद्धान्त सूत्र ' किया है, जिससे स्पष्ट है कि गृहस्थ के सिद्धान्ताध्ययन में उन्हें किसी प्रकार की कैद अभीष्ट नहीं है । इस श्रावकाचार में उपवास के दिन गृहस्थ को ज्ञान-ध्यान परायण ' होने का विशेष रूप से उपदेश है, तथा उत्कृष्ट श्रावक के लिये समय या आगम का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक बतलाया है - समय यदि जानीते, श्रेयेज्ञाता ध्रुवं भवति ॥ ५, २७, 'यदि समयं आगमं जानीते, आगमज्ञो यदि भवति, तदा ध्रुवं निश्चयेन श्रेयो ज्ञाता स भवति'।
_ (प्रभाचंद्रकृत टीका ) धर्मपरीक्षादि ग्रन्थों के विद्वान् कर्ता अमितगति आचार्य विक्रम की ११ हवीं शताब्दि में हुए हैं। इनका बनाया हुआ श्रावकाचार भी खूब सुविस्तृत ग्रंथ है । इस ग्रंथ में उन्होंने 'जिन प्रवचन का अभिज्ञ' होना उत्तम श्रावक का आवश्यक लक्षण माना है।
१ रत्नकरण्डश्रावकाचार (मा.अं. मा.) १, ५. २ रत्नकरण्डावाकचार (मा.ग्रं.मा.) ४, १८