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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२६२ अध्ययन करके अन्य शास्त्रों का भी अधीता पर्व के अन्त में प्रतिमायोग को धारण करने वाला पुण्यात्मा जीव पापों कोनष्टकरताहै।
इस पद्य में आशाधरजी ने अजैन से जैन बनने के आठ संस्कारों, अर्थात् अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढचर्या और उपयोगिता का संक्षेप में निरूपण किया है, जिसमें उन्होंने जैन बनने से पूर्व ही अर्थात् अपनी अजैन अवस्था में ही जैन श्रुतांगों अर्थात् बारह अंग और चौदह पूर्व के 'अर्थसंग्रह' के अध्ययन कर लेने का उपदेश दिया है । पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ और दृढचर्या क्रियाओं का स्वरूप स्वंय वीरसेनस्वामी के शिष्य तथा जयधवला के उत्तरभाग के रचयिता जिनसेन स्वामी ने महापुराण में भी इस प्रकार बतलाया है -
पूजाराध्याख्यया ख्याता क्रियाऽस्य स्यादतः परा। पूजोपवाससम्पत्या गृहृतोऽहार्थसंग्रहम् ॥ ततोऽन्यापुण्ययज्ञाख्या क्रिया पुण्यानुबन्धिनी। शृण्वतः पूर्वविद्यानामर्थ सब्रहाचारिणः ॥ तदास्य दृढचर्याख्या क्रिया स्वसमये श्रुतम् । निष्ठाव्य श्रृण्वतो ग्रंथान्बाहानन्यांश्च कांश्चन ॥
यहां भी जैन होनेसे पूर्व ही गृहस्थ को अंगों के अर्थ संग्रह का तथा पूर्वो की विद्याओं को सुन लेने का पूरा अधिकार दिया गया है । यद्यपि मेधावीकृत धर्मसंग्रहश्रावकाचार इस समय हमारे सन्मुख नहीं है तथापि यह तो सुविदित है कि पं. मेधावी या मीहा जिनचन्द्रभट्टारक के शिष्य थे और उन्होंने अपना यह ग्रन्थ वि.सं., १५४१ में हिसार (पंजाब) नगर में वसुनन्दि, आशाधर और समन्तभद्र के ग्रन्थों के आधार से बनाया था । धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर श्रावकाचार का तो हमने नाम ही इसी समय प्रथम वार देखा है, और यहां भी न तो उसके कर्ता का कोई नाम-धाम बतलाया गया और न उसकी किसी प्रति मुद्रित या हस्तलिखित का उल्लेख किया गया । अतएव इस अज्ञात कुल-शील ग्रंथ की हम परीक्षा क्या करें ? यह कोई प्राचीन प्रमाणिक ग्रंथ तो ज्ञात नहीं होता । लेखक ने एक वर्तमान रचयिता मुनि सुधर्मसागरजी के लिखे हुए 'सुधर्मश्रावकाचार' का मत भी उद्धृत किया है। किन्तु प्राचीन प्रमाणों की ऊहापोह में उसे लेना हमने उचित नहीं समझा। वह तो पूर्वोक्त ग्रंथों के आश्रय से ही आज का उनका मत है ।