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________________ २६१ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका हैं, सर्वार्थसिद्धि भी सूत्रही ठहरताहै, क्योंकि, इसमें षट्खंडागम के सूत्रों का संस्कृत रूपान्तर पाया जाता है, गोम्मटसार भी सूत्र हैं, क्योंकि, इसमें भी षट्खंडागम के प्रमेयांशका संग्रह, अर्थात् सूत्ररूप से समुद्धार किया गया है, इत्यादि । पर यदि हम सूत्र का अर्थ भगवती आराधना की परिभाषानुसार लें, तो ये कोई भी ग्रन्थ सूत्र नहीं सिद्ध होते । इस स्थिति से • बचने का कोई उपाय उपलब्ध नहीं है । अब इन्हीं आशाधर जी के इसी सागरधर्मामृत के प्रथम अध्याय के १०वें श्लोक और उन्हीं के द्वारा लिखी गई उसकी टीका को देखिये - शालाकयेवाप्तगिराप्तसूत्रप्रवेशमार्गो मणिवच्च यः स्यात् । हीनोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद भायादसौसांव्यवहारिकाणाम् ॥ अर्थात्, जिस प्रकार एक मोती जो कि कांति-रहित है, उसमें भी यदि सलाई के द्वारा छिद्र कर सूत (डोरा) पिरोने योग्य मार्ग करा दिया जाय और उसे कांतिवाले मोतियों की माला में पिरो दिया जाय तो वह कांति-रहितमोती भी कांतिवाले मोतियों के साथ वैसा ही, अर्थात् कांति सहित ही सुशोभित होता है । इसी प्रकार जोपुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं है वह भी यदि सद्गुरु के वचनों के द्वारा अरंहतदेव के कहे हुये सूत्रों में प्रवेश करने का मार्ग प्राप्त कर ले, तोवह सम्यक्त्व-रहित होकरभी सम्यग्दृष्टियों में नयों के जानने वाले व्यवहारी लोगों को सम्यग्दृष्टि केसमान ही सुशोभित होता है । सागारधर्मामृत की टीका भी स्वयं आशाधर जी की बनाई हुई है। उस श्लोक की टीका में सूत्र का अर्थ परमागम और प्रवेश मार्ग अर्थ 'अन्तस्तत्वपरिच्छेदनोपाय' किया गया है, जिससे स्पष्ट है कि आशाधरजी के ही मतानुसार अविरतसम्यग्दृष्टि तो बात क्या, सम्यक्त्वरहित व्यक्ति को भी परमागम के अन्तस्तत्वज्ञान करने का पूर्ण अधिकार है । और भी सागारधर्मामृत के दूसरे अध्याय के २१वें श्लोक में आशाधरजी कहते हैं तत्वार्य प्रतिपद्य तीर्थकथनादादाय देशव्रतं तद्दीक्षाग्रधृतापराजित महामन्त्रोऽस्तदुर्दैवतः। आंग पौर्वमथार्थसंग्रहमधीत्याधीतशास्त्रान्तरः पर्वान्ते प्रतिमासमाधिमुपयन्धन्यो निहन्त्यंहसी॥ . अर्थात्, तीर्थ याने धर्माचार्य व गृहस्थाचार्य के कथन से जीवादिक पदार्थो को निश्चित करके, एक देशव्रत को धरके, दीक्षा से पूर्व अपराजित महामन्त्रका धारी और मिथ्या देवताओं का त्यागी तथा अंगों (द्वादशांग) व पूर्वो (चौदह पूर्वो ) के अर्थसंग्रह का
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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