________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२५७ दुर्भेध, अर्थात् अत्यन्त मन्दबुद्धिवाले लोगों के अनुग्रह के ध्यान से उसका सूत्र में पुनरुच्चारण कर दिया गया है । जिनदेव तो नीराग होते हैं, अर्थात् किसी से भी रागद्वेष नही रखते, और इस कारण वे सभी प्राणियों का उपकार करना चाहते हैं केवल मुनियों या बुद्धिमानों का ही नहीं।
(सत्प्र.१, पृ. १६२) और आगे चलिये । सत्प्र. सूत्र ३० में कहा गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यच मिश्र होते हैं । इस सूत्र की टीका करते हुए आचार्य प्रश्न उठाते हैं कि 'गतिमार्गणा की प्ररूपणा करने पर इस गति में इतने गुणस्थान होते हैं, और इतने नहीं ' इस प्रकार के निरूपण से ही यह जाना जाता है कि इस गति की इस गति केसाथ गुणस्थानों की अपेक्षा समानता है, इसकी इसके साथ नहीं। अत: फिर से इसका कथन करना निष्फल है । इस प्रश्न का आचार्य समाधान करते हैं कि -
'न, तस्य दुर्मेधसामपि स्पष्टीकरणार्थत्वात् । प्रतिपाद्यस्य बुभुत्सितार्थ विषय निर्णयोत्पादनं वक्तृवचसः फलम् इति न्यायात् ।
अर्थात्, पूर्वोक्त शंका ठीक नहीं, क्योंकि, दुर्भध लोगों को उसका भाव स्पष्ट हो जावे, यह उसका प्रयोजन है । न्याय यही कहता है कि जिज्ञासित अर्थ का निर्णय करा देना ही वक्ता के वचनों का फल है।
इसी प्रकार पृ. २७५ पर कहा है कि -
'अनवगतस्य विस्मृतस्य वा शिष्यस्य प्रश्नवशादस्य सूत्रस्यावतारात्' अर्थात् उसे जिस रात का अभी तक ज्ञान नहीं है, अथवा होकर विस्मृत हो गया है,ऐसे शिष्य के प्रश्नवश इस सूत्र का अवतार हुआ है । पृ. ३२२ पर कहा है 'द्रव्यार्थिकनयात् सत्वानुग्रहार्थ तत्प्रवृत्तेः। ..... बुद्धीनां वैचित्र्यात् । ..... अस्यार्षस्य त्रिकालगोचरानन्तप्राण्यपेक्षया प्रवृत्तत्वात्।
____ अर्थात् उक्त निरूपण द्रव्यार्थिक नयानुसार समस्त पाणियों के अनुग्रह के लिये प्रवृत्त हुआ है । भिन्न-भिन्न मनुष्यों की भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धि होती है। और इस आर्षग्रंथ की प्रवृत्ति तो त्रिकालवर्ती अनन्त प्राणियों की अपेक्षा से ही हुई है । पृ. ३२३ पर कहा गया है कि 'जातारेकस्य भव्यस्यारेकानिरसनार्थमाह'
' अर्थात्, अमुक बात किसी भी भव्य जीव की शंका के निवारणार्थ कही गई है। पृ. ३७० पर कहा है -