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________________ २५६ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका मुनियों के सामने भी सिद्धान्त शास्त्र नहीं पढ़ने चाहिये ।" इसके अनुसार गृहस्थ ही नहीं, किन्तु मंदबुद्धि मुनि और समस्त अर्जिकाएं भी निषेध के लपेटे में आ गये । इसका उत्तर हम स्वयं सिद्धान्त-ग्रंथकारों के शब्दों में ही देना चाहते हैं। पाठक सत्प्ररूपणा के सूत्र ५ और उसकी धवला टीका को देखें । सूत्र हैं एदेसिं चेव चोदसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णायव्वाणि भवंति ॥५॥ इसकी टीका है - 'तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि' एतदेवालं, शेषस्य नान्तरीयकत्वादिति चेन्नैष दोषः, मन्द-बुद्धिसत्वानुग्रहार्थत्वात् । अर्थात्, 'तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि' इतने मात्र सूत्र से काम चल सकता था, शेष शब्दों की सूत्र में आवश्यकता ही नहीं थी, उनका अर्थ वहीं गर्भित हो सकता था? इस शंका का धवलाकार उत्तर देते हैं कि नहीं, यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्रकार का अभिप्राय मन्दबुद्धि जीवों का उपकार करना रहा है । अर्थात्, जिस प्रकार से मन्दबुद्धि प्राणिमात्र सूत्र का अर्थ समझ सकें उस प्रकार स्पष्टता से सूत्र-रचना की गई है। यहां दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। धवलाकार के स्पष्ट मतानुसार एक तो सूत्रकार का अभिप्राय अपना ग्रंथ केवल मुनियों को नहीं, किन्तु सत्त्वमात्र, पुरुष स्त्री, मुनि, गृहस्थ आदि सभी को ग्राहा बनाने का रहा है, और दूसरे उन्होंने केवल प्रतिभाशाली बुद्धिमानों का ही नहीं, किन्तु मन्दबुद्धियों, अल्पमेधावियों का भी पूरा ध्यान रखा है। ऐसी बात आचार्य जी ने केवल यही कह दी हो, सो बात भी नहीं है । आगे का नौवां सूत्र देखिये जो इसप्रकार है 'ओघेण अस्थि मिच्छादिट्ठी ।' यहां धवलाकार पुन: कहते हैं कि - यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायात् । ओघाभिमानमन्तरेणापि ओघोऽवगम्यते, तस्येहपुनरुच्चारण मनर्थकमिति न, तस्य दुर्मेधोजनानुग्रहार्थत्वात् । सर्वसत्वानुग्रहकारिणो हि जिनाः, नीरागत्वात् । अर्थात्, जिस प्रकार उद्देश होता है, उसी प्रकार निर्देश किया जाता है, इस नियम के अनुसार तो 'ओद्य' शब्द को सूत्र में न रखकर भी उसका अर्थ समझा जा सकता था, फिर उसका यहां पुनरुच्चारण अनर्थक हुआ ? इस शंका का आचार्य उत्तर देते हैं कि नहीं,
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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