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________________ २५३ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका कि वह भाषासमिति का पालन करता हुआ या मौन सहित भिक्षा के लिये भ्रमण करने का पात्र है । इसी गाथा की टीका समाप्त हो जाने के पश्चात् 'उक्तं च समन्तभद्रेण महाकविना' कहके चार आर्याएं उद्धृत की गई हैं , जिनमें चौथी गाथा है 'वीर्यचर्या च सूर्यप्रतिमा -' आदि । यहां न तो इसका कोई प्रसंग है और न पाहुडगाथा में उसके लिये कोई आधार है। यह भी पता नहीं चलता कि कौन से समन्तभद्र महाकवि की रचना में से ये पद्य उद्धृत किये गये हैं । जैन साहित्य में जो समन्तभद्र सुप्रसिद्ध हैं उनकी उत्कृष्ट और प्रसिद्ध रचनाओं में ये पद्य नहीं पाये जाते । प्रत्युत इसके उनके रचित श्रावकाचार में जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, श्रावकों पर ऐसा कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया। अतएव वह अवतरण कहां तक प्रामाणिक माना जा सकताहै यह शंकास्पद ही है। स्वयं कुंदकुंदाचार्य की इतनी विस्तृत रचनाओं में कहीं भी इस प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है । इसी सूत्रपाहुड की गाथा ५ और ७ को देखिये । वहां कहा गया है - सुत्तत्थं जिणभणियं जीवाजीवादिबहविहं अत्थं । हेयाहेयं च तहा जो जाणइ सो हु सद्दिट्ठी ॥५॥ सुत्तत्थपयविणट्ठो मिच्छादिट्ठी हु सो मुणेयब्बो॥७॥ अर्थात्, जो कोई जिन भगवान् के कहे हुए सूत्रों में स्थित जीव, अजीव आदि सम्बन्धी नाना प्रकार के अर्थ को तथा हेय और अहेय को जानता है वही सम्यग्दृष्टि है। सूत्रों के अर्थ से भ्रष्ट हुआ मनुष्य मिथ्यादृष्टि है । यहां श्रुतसागर जी अपनी टीका में कहते हैं 'सूत्रस्यार्थ जिनेन भणितं प्रतिपादितं ...... य: पुमान् जानाति वेत्ति स पुमान् स्फुटं सम्यग्दृष्टिर्भवति । ... सूत्रार्थपदविनष्ट:पुमान् मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः ।। यहां श्रुतसागर जी स्वयं जिनोक्त सूत्रों के अर्थ के ज्ञान को सम्यग्दर्शन का अत्यन्त आवश्यक अंग मान रहे हैं, और उस ज्ञान के बिना मनुष्य मिथ्यादृष्टि रहता है यह भी स्वीकार कर रहे हैं । वे 'पुमान्' शब्द के उपयोग से यह भी स्पष्ट बतला रहे हैं कि जिनोक्त सूत्रों का अर्थ समझना केवल मुनिराजों के लिये ही नहीं, किन्तु मनुष्यमात्र के लिये आवश्यक है। ऐसी अवस्थामें वे सिद्धान्त ग्रंथों के जिनोक्त सूत्रों से बाहर समझकर श्रावकों को उन्हें पढ़ने का निषेध करते हैं, या श्रावकों को मिथ्यादृष्टि बनाना चाहते हैं, यह उनकी स्वयं परस्पर विरोधी बातों से कुछ समझ में नहीं आता । इससे स्पष्ट है कि उस निषेधवाली बात का न तो भगवान् कुंदकुंदाचार्य के वाक्यों से सामन्जस्य बैठता है, और न स्वयं टीकाकार के पूर्व कथनों से मेल खाता है। श्रुतसागर जी का समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दि
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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