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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका बाहर हैं, जो उनका अध्ययन न किया जाय ? या शंकादि सब दोषों का परिहार होकर निर्मल श्रद्धा उन्हें बिना पढ़े ही उत्पन्न हो जाना चाहिये ? आगम की पहिचान के लिये आगे की गाथा में कहा गया है -
अत्ता दोसविमुक्को पुव्वापरदोसवज्जियं वयणं ।
अर्थात्, जिसमें कोई दोष नहीं वह आप्त है, और जिसमें पूर्वा पर विरोध रूपी दोष न हो वह वचन आगम है । तब क्या आगम को बिना देखे ही उसके पूर्वा पर - विरोध राहित्य को स्वीकार कर निःशंक, निर्मलश्रद्धान कर लेने का यहां उपदेश दिया गया है ?
जैसा हम देखेंगे, आगम और सिद्धान्त एक ही अर्थ के द्योतक पर्यायवाची शब्द हैं। कहीं 'इनमें भेद नहीं किया गया। आगे देशविरत के कर्तव्यों में कहा गया है -
णाणे णाणुवयरणे णाणवंतम्भि तह य भत्तीय। जं परियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ ॥ ३२२ ॥
अर्थात्, ज्ञान, ज्ञान के उपकरण अर्थात् शास्त्र, और ज्ञानवान् की नित्य भक्ति करना ही ज्ञान विनय है । और भी -
हियमियपिज्जं सुत्ताणुवचि अफरसमकक्कसं वयणं । सजमिजणम्मि जं चाडुभासणं वाचिओ विणओ ॥३२७ ॥
अर्थात्, हित, मित, प्रिय और सूत्र के अनुसार वचन बोलना ... आदि वचन विनय है । इन गाथाओं में जो ज्ञान, ज्ञानोपकरण और ज्ञानी का अलग-अलग उल्लेख कर उनके विनय का उपदेश दिया गया है, तथा जो सूत्र के अनुसार वचन बोलने का आदेश है, क्या इस विनय और अनुसरण में सिद्धान्त गर्भित नहीं है ? क्या सूत्र का अर्थ सिद्धान्त वाक्य नहीं है ? हम आगे चलकर देखेंगे कि सूत्र का अर्थ साक्षात् जिन भगवान् की द्वादशांग वाणी है । तब फिर द्वादशांग से सम्बन्ध रखने वाले सिद्धान्त ग्रंथों के पठन का गृहस्थ को निषेध किस प्रकार किया जा सकता है ?
अब श्रुतसागर जी की षट्प्राभृतटीका को लीजिये । कुंदकुंदाचार्यकृत सूत्रपाहुड की २१वीं गाथा है -
दुइयं च वुत्तलिंगं उक्किट्ठ अवर सावयाणं च । भिक्खं भमेइ पत्तो समिदीभासेण मोणेण ॥ इस गाथा में आचार्य ने ग्यारहवीं प्रतिमाधारी उत्कृष्ट श्रावक के लक्षण बतलाये हैं