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________________ सिद्धान्त और उनके अध्ययन का अधिकार जैन धर्म ज्ञान और विवेक प्रधान है । यहां मनुष्य के प्रत्येक कार्य की अछाई और बुराई का निर्णय वस्तुस्वरूप के विचार और भावों की शुद्धि या अशुद्धि के अनुसार किया गया है । ज्ञान का स्थान यहां बहुत ऊंचा है । मोक्ष का मार्ग जो रत्नत्रयरूप कहा गया है उसमें ज्ञान का स्थान चरित्र से पूर्व रखा है । जब कुछ ज्ञान हो जायगा तभी तो चरित्र सुधर सकेगा, और जितनी मात्रा में ज्ञान विशुद्ध होता जायगा उतनी मात्रा में ही चरित्र निर्मल होने की सम्भावना हो सकती है। इसीलिये जैनी देव के साथ ही शास्त्र की भी पूजा करते हैं। दैनिक आवश्यक क्रियाओं में शास्त्र-स्वाध्याय का स्थान विशेष रूप से है। चार प्रकार के दानों में शास्त्रदान की बड़ी महिमा है । जैन आचार्यो को ज्ञात था कि धर्म का प्रचार और परिपालन शास्त्रों के आधार से ही हो सकता है, अत: उन्होंने समय - समय पर सभी स्थानों और प्रदेशों की भाषाओं में ग्रंथ रचकर उनका प्रचार व पठन-पाठन बढ़ाने का प्रयत्न किया। स्वयं तीर्थकर भगवान् की दिव्यवाणी की यह एक विशेषता कही जाती है कि उसे सब प्राणी सुन और समझ सकते तथा उससे लाभ उठा सकते हैं। प्राचीन काल की शिष्ट भाषा कहलाने वाली संस्कृत को छोड़कर जैन सिद्धान्त को प्राकृत- भाषा - निबद्ध करने में यह भी एक हेतु कहा जाता है कि जिससे बाल, स्त्री, मन्द, मूर्ख सभी चारित्र सुधारने की वांछा रखने वाले उससे लाभ उठा सकें । किन्तु धर्म का उदात्त ध्येय और स्वरूप सदैव एकसा नियत नहीं रहने पाता । ज्यों ही उसमें गुरु कहलाने की अभिलाषा रखनेवाले व्यक्तियों की वृद्धि हुई, और ज्ञान की हीनता होते हुये भी वे मर्यादा से बाहर की बातें कहने सुनने लगे, त्यों ही उसमें अनेक विवेकहीन और तर्कशून्य बातें व विश्वास भी आ घुसते हैं, जो भोली समाज में घर करके कभी - कभी बड़े अनर्थ के कारण बन जाते हैं। जैनशास्त्र- स्वाध्याय के सम्बन्ध में भी ऐसी ही एक बात उत्पन्न हुई है जिसका हमें यहां विचार करना है। षट्खंडागम की इससे पूर्व तीन जिल्हें प्रकाशित हो चुकी हैं और अब चौथी जिल्द पाठकों के हाथ में पहुंच रही है । इन सिद्धान्त ग्रंथों का समाज में आदर और प्रचार १ देवपूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने दिने । २ औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान और आहारदान । ३ बालस्त्रीमंदमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्त: प्राकृतः कृतः ॥
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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