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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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देखकर हमें अपने ध्येय की सफलता का संतोष हो रहा है । इस ओर समाज के औत्सुक्य और तत्परता का अनुमान इसी से हो सकता है कि इतने अल्प काल में हमें सिद्धान्तोद्वार
कार्य में मूडबिद्री - संस्थान का पूर्ण सहयोग प्राप्त हो गया है, जयधवल के प्रकाशन के लिये भी अनेक संस्थायें उत्सुक हो उठी और जैन संघ, मथुरा, की ओर से उसका कार्य भी प्रारम्भ हो गया, तथा सेठ गुलाबचंद जी शोलापुर की सद्भावना से महाधवल के सम्बन्ध में भी एक समिति सुसंगठित हो गई है । श्रीयुक्त मंजैया जी हेगडे ने तीनों सिद्धान्तों के मूलपाठ को ताड़पत्रीय प्रतियों के आधार से प्रकाशित करने की स्कीम भी प्रस्तुत की है। प्रकाशित सिद्धान्त स्वाध्याय भी अनेक मंदिरों और शास्त्रभंडारों व गृहों में हो रहा है । यही नहीं, बम्बई की माणिकचंद जैन परीक्षालय समिति ने अपनी गत बैठक में धवलसिद्धान्त प्रथम भाग सत्प्ररूपणा को अपनी सर्वोच्च शास्त्री परीक्षा के पाठयक्रम में सम्मिलित कर इन सिद्धान्तों के समयोचित पठन-पाठन का मार्ग भी खोल दिया है ।
इस सब प्रगतिसे विद्वत्संसार को बड़ा हर्ष है । किन्तु एकाध विद्वान् अभी ऐसे भी हैं जिन्हें इन सिद्धान्तों का यह उद्धार - प्रचार उचित नहीं जंचता । उनके विचार से न तो इन ग्रंथों का मुद्रण होना चाहिये, और न इन्हें विद्यालयों में अध्ययन-अध्यापन का विषय बनाना चाहिये । यहां तक कि गृहस्थमात्र को इनके पढने का निषेध कर देना चाहिये । उनका यह विवेक निम्न लिखित आगम और युक्ति पर निर्भर है -
(१) अनेक प्राचीन ग्रंथों में यह उपदेश पायाजाता है कि गृहस्थों को सिद्धान्तों सिद्धान्तों के श्रवण, पठन या अध्ययन का अधिकार नहीं है ।
(२) सिद्धान्तग्रन्थ दो ही हैं जो कि धवल, जयधवल, महाधवल के रूप में टीका द्वारा उपलब्ध हैं, बाकी सभी शास्त्र सिद्धान्तग्रंथ नहीं हैं ।
प्रथम बात की पुष्टि में निम्नलिखित ग्रंथों के अवतरण दिये गये हैं -
(१) वसुनन्दि श्रावकाचार, (२) श्रुतसागरकृत षट्प्राभृतटीका, (३) वामदेवकृत
★ देखो पं. मक्खनलाल शास्त्री लिखित 'सिद्धान्शास्त्र और उनके अध्ययन का अधिकार', मोरेना, वी. सं. २४६८.
१ दिणपडिम वीरचरिया तियालजोगेसु णत्थि अहियारो । सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं ॥ ३१२ ॥ (वसुनन्दि-श्रावकाचार )
२ वीरचर्या च सूर्यप्रतिमा त्रैकाल्ययोगनियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देशविरतानाम् ।
(श्रुतसागर - षट्प्राभृतटीका)