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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
परिस्थिति इस प्रकार है -
भाग
१
२४८
इस प्रकार कुल पाठभेद १४९ + ६२ + १५७ +१२० = ४८८ आये हैं । संक्षेप में यह
३
कुल
मूल पाठ में भेद
ब
स
ड
३०
६०
३८
३०
१५ ७०
६७
६७
२२८
१५७ १२० ४८८
अ
६२
२५
X
६२
३२
१४९ ६२
&
कुल
अनुवाद परिवर्तन
कुल
३६
१०
X
३२
१७ ७८
अ
≈
१०
३२
६१
ब
१७
१ देखो पृष्ठ २६४, ३५४, ३८३, ३८४, ३९२, ४१२, ४२४, ४३५, ४४४, ४५१.
२ देखो पृष्ठ ४८६.
३ देखो पृष्ठ ६१, २४८, ३४८, ३५३, ४४०
X
मूल पाठ के संशोधन में अर्थ और शैली की दृष्टि से कुछ स्थानों पर हमें पाठ स्खलित प्रतीत हुए थे । प्रतियों का आधार न होने से हमने वे पाठ कोष्ठकों में भीतर रखे हैं, जिससे पाठक सुलभता से हमारे जोड़े हुए पाठ को अलग पहिचान सकें। गत द्वितीय भाग में भी इसी प्रकार पाठ कहीं कहीं जोड़ना पड़े थे । किन्तु वह आलाप प्रकरण होने से स्खलन शीघ्र दृष्टि में आ जाते हैं । पर इसभाग का विषय बहुत कुछ सूक्ष्म है, अतएव यहां के स्खलन बड़े ही गंभीर विचार के पश्चात् ध्यान में आसके और उनका पाथ धवलाकार की शैली में ही बड़े विचार के साथ रखना पड़ा। ऐसे पाठ प्रस्तुत भाग में १९ हैं । हमें यह प्रकट करते हुए हर्ष होता है कि मुड़बिद्री के मिलान से इन पाठों में के १२ पाठ जैसे हमने रखे हैं वैसे ही शब्दश: ताड़पत्रीय प्रतियों में पाये गये । एक पाठ में हमारे रखे हुए 'खवगा' के स्थान पर ‘बंधगा' पाठ आया है, किन्तु विचार करने पर यह अशुद्ध प्रतीत होता है, वहां 'खवगा' ही चाहिये ' । शेष ६ पाठ मूडबिद्रीकी की प्रति में नहीं पाये गये । किन्तु वे पाठ अशुद्ध फिर भी नहीं हैं । यथार्थत: वहां अर्थ की दृष्टि से वही अभिप्राय पूर्वापर पर प्रसंग से लेना पड़ता है। धवलाकार की अन्यत्र शैली पर से ही वे पाठ निहित किये गये हैं ।