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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २४५ शताब्दियों पूर्व रचे गये भूतबलि आचार्य के सूत्रों में जो गणितशास्त्रसंबंधी उल्लेख हैं, वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं । उनमें एक से लगाकर शत, सहस्र, शतसहस्र (लक्ष), कोटि, कोटाकोटाकोटी व कोटाकोटाकोटाकोटी तक की गणना, व उससे भी ऊ पर संख्यात, असंख्यात, अनन्त और अनन्तानन्त का कथन, गणित की मूल प्रक्रियाओं जैसे सातिरेक, हीन, गुण और अवहार या प्रतिभाग अर्थात् जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग और वर्गमूल, तथा प्रथम, द्वितीय आदि सातवें तक वर्ग व वर्गमूल, घन, अन्योन्याभ्यास आदि का खूब उपयोग किया गया है । क्षेत्र और कालसंबंधी विशेष गणना-मानों जैसे अंगुल, योजन, श्रेणी, जगप्रतर व लोक तथा आवली, अन्तर्मुहूर्त, अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी, पल्योपम, तथा विष्कंभ विष्कंभसूची (पंक्तिरूप क्षेत्रआयाम), इन सबका भी सूत्रों में खूब उपयोग पाया जाता है, जिनके स्वरूप पर ध्यान देने से आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व के एतद्देशीय गणितज्ञान का अच्छा दिग्दर्शन मिल जाता है । धवलाकार की रचना में असंख्यात, असंख्यातासंख्यात तथा अनन्त और अनन्तानन्त के आन्तरिक प्रभेदों और तारतम्यों का और भी सूक्ष्म निदर्शन किया गया है, जिसका स्वरूप हम ऊपर दिखा आये हैं। इस विषय में धवलाकार द्वारा अर्धच्छेद और वर्गशालाकाओं के परस्पर संबंध का तथा वर्गित-संवर्गित राशि का जो परिचय दिया गया है वह गणित की विशेष उपयोगी वस्तु है । (देखो भा.३ पृ. १८-२६)। सर्व जीवराशि का उसके अन्तर्गत राशियों में भाग-प्रविभाग दिखाने के लिये धवलाकार ने ध्रुवराशि (भागाहार विशेष) स्थापित करने की क्रिया और उससे भाग देने की प्रक्रियाएं जैसे खंडित, भाजित, बिरलित और अपहृत विस्तार से दी हैं, जो गणितज्ञों को रुचिकर सिद्ध होंगी। (देखो भा.३ पृ. ४१) । धुवराशि से भाग देनेपर विवक्षित मिथ्यादृष्टिराशि क्यों आती है, इसका कारणसमझाने में भाज्य और भाजक के हानि-बृद्धिक्रम का जो तारतम्य और संबंध बतलाया गया है और क्षेत्र-गणित से समझाया गया है, वह गणितशास्त्र का एक बहमूल्य भाग है। (देखो भा.३ पृ. ४२ आदि) अवतरण गाथा २३ से ३२ तक की नौ गाथाओं में इसी संबंध के बड़े सुंदर नियमगुरुरूप में उद्धृत किये गये हैं और उनका उपयोग विवक्षित राशियां लाने के लिये यथासंभव और यथास्थान भाग के अनेक विकल्पों में करके बतलाया गया है। अधस्तन विकल्प में निश्चित भाज्य और भाजक से नीचे की संख्या लेकर वही भजनफल उत्पन्न करके बतलाया गया है, और वह भी द्विरूप अर्थात् वर्गधारा में, अष्टरूप अर्थात् घनधारा में और घनाघनधारा में । अर्थात् निश्चित संख्या का प्रथम, द्वितीय व तृतीय
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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