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________________ २४४ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका ने इस दूसरे मत का परिहार किया है और उसके दो कारण दिये हैं। एक तो बादाल का घन २९ अंक प्रमाण होकर भी कोड़ाकोड़ा - कोड़ाकोड़ी के ऊपर निकल जाता है, जिससे सूत्रोक्त अंक-सीमाओं का सर्वथा उल्लंघन हो जाता है। दूसरे यदि ढाई द्वीप के उस भाग का क्षेत्रफल निकाला जाय जहाँ मनुष्य विशेषता से पाये जाते हैं, तो उसका क्षेत्रफल केवल २५ अंक प्रमाण प्रतरांगुलों में आता है, जिससे उस २९ अंक प्रमाण मनुष्य राशि वहां निवास असंभव सिद्ध होता है। यही नहीं, सर्वार्थसिद्धि के देवों का प्रमाण मनुष्य पर्याप्तराशि से संख्यातगुणा कहा गया है जबकि सर्वार्थसिद्धि विमान का प्रमाण केवल जम्बूद्वीप के बराबर है । अतएव उक्त प्रमाण से इन देवों की अवगाहना भी उनकी निश्चित निवास - भूमि में असंभव हो जायगी । अतः उक्त राशि का प्रमाण सूत्रोक्त अर्थात् कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी नीचे ही मानना उचित है । (पृ. २५३ - २५८) (९) आहारमिश्रकाययोगियों का प्रमाण आचार्य - परम्परागत उपदेश से २७ माना गया है, किन्तु सूत्र नं. १२० में उनका प्रमाण 'संख्यात' शब्द के द्वारा सूचित किया गया है। इस पर से धवलाकार का मत है कि उक्त राशि का प्रमाण निश्चित २७ नहीं मानना चाहिये, किन्तु मध्यम संख्यात की अन्य कोई संख्या होना चाहिये, जिसे जिनेन्द्र भगवान् ही जानते हैं । यद्यपि २७ भी मध्यम संख्यात का ही एक भेद है और इसलिये उसके भी उक्त प्रमाण प्ररूपण में ग्रहण करने की संभावना हो सकती है, किन्तु इसके विरुद्ध धवलाकारने दो हेतु दिये हैं । एक तो सूत्र में केवल 'संख्यात' शब्द द्वारा ही वह प्रमाण प्रकट किया गया है, किसी निश्चित संख्या द्वारा नहीं । दूसरे मिश्रकाययोगियों से आहारकाययोगी संख्यातगुणे कहे गये हैं। दोनों विकल्पों में यहां सामंजस्य बन नहीं सकता, क्योंकि, सर्व अपर्याप्तकाल से जघन्य पर्याप्तकाल भी संख्यातगुणा माना गया है। (पृ ४०२) गणित की विशेषता धवलाकार ने अपने इस ग्रंथभाग के आदि में ही मंगलाचरण गाथा में कहा है कि- ‘णमिऊण जिणं भणिमो दव्वणिओगं गणिसारं ' अर्थात् जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके हम द्रव्यप्रमाणानुयोग का कथन करते हैं, जिसका सार भाग गणितशास्त्र से सम्बंध रखता है, या जो गणित - शास्त्र - प्रधान है । यह प्रतिज्ञा इस ग्रंथ में पूर्णरूप से निवाही गई है। धवलाकार ने इस ग्रंथभाग में गणितज्ञान का खूब उपयोग किया है, जिससे तत्कालीन गणितशास्त्र की अवस्था का हमें बहुत अच्छा परिचय मिल जाता है । धवलाकार से
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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