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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २४३ है, किन्तु दक्षिणप्रतिपत्यनुसार यह प्रमाण ५,९३, ९८,२०६ आता है । इन मतभेदों के बीच निर्णय करने का भी धवलाकार ने यहां कोई प्रयत्न नहीं किया । किन्तु दक्षिणप्रतिपत्ति के प्रमाण में जो कुछ आचार्यो ने यह शंका उठाई है कि सब तीर्थकरों में सबसे बड़ा शिष्यपरिवार पद्यप्रभस्वामी का ही था, किन्तु वह परिवार भी मात्र ३,३०,००० ही था । तब फिर जो सर्व संयतों की पूरी संख्या ८९९९९९९७ एक प्राचीन गाथा में बतलाई है, वह कैसे सिद्ध हो सकती है ? इसका परिहार धवलाकार ने यह किया है कि इस हुंडावसर्पिणी कालवर्ती तीर्थकरों के साथ भले ही संयतों का उक्त प्रमाण पूर्ण न होता हो, किन्तु अन्य उत्सर्पिणीअवसर्पिणियों में तो तीर्थकरों का शिष्य-परिवार बड़ा पाया जाता है, अत: वहां उक्त प्रमाण पूरा हो सकता है। इसलिये उक्त प्रमाण में कोई दूषण नहीं है । (पृ. ९८-९९) (६) पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टियों का अवहारकाल देवों के अवहारकाल के आश्रय से बतलाया गया है । किन्तु धवलाकार का मत है कि कितने ही आचार्यो का उक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है, क्योंकि, वानव्यन्तर देवों का अवहारकाल तीन सौ योजनों के अंगुलों का वर्गमात्र बतलाया गया है । यहां कोई यह शंका कर सकता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती मिथ्यादृष्टि संबंधी अवहारकाल ही गलत है और वानव्यन्तर देवों का अवहारकाल ठीक है, यह कैसे जाना जाता है ? यहां धवलाकार कहते हैं कि हमारा कोई एकान्त आग्रह नहीं है, किन्तु जब दो बातों में विरोध है तो उनमें से कोई एक तो असत्य होना ही चाहिये । किन्तु इतना समाधानपूर्वक कह चुकने पर धवलाकार को अपनी निर्णायक बुद्धि की प्रेरणा हुई और वे कह उठे - 'अहवा दोणि वि वक्खाणाणि असच्चाणि, एसा अम्हाणं पइज्जा।' अर्थात् उक्त दोनों ही व्याख्यान असत्य हैं, यह हम प्रतिज्ञापूर्वक कह सकते हैं । इसके आगे धवलाकार ने खुद्दाबंध सूत्र के आधार से उक्त दोनों अवहारकालों को असिद्ध करके उनमें यथोचित प्रमाण- प्रवेश करने का उपदेश दिया है। (पृ. २३१-२३२) (७) सासादनसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण एक प्राचीन गाथा में ५२ करोड़ और दूसरी गाथा में ५० करोड़ पाया जाता है । धवलाकार ने प्रथम मत ही ग्रहण करने का आदेश किया है, क्योंकि, वह प्रमाण आचार्य परंपरागत है । (पृ. २५२) (८) सूत्र ४५ में मनुष्य पर्याप्त मिथ्यादृष्टि राशि का प्रमाण बतलाया है 'कोड़ाकोड़ाकोड़ी से ऊपर और 'कोड़ाकोड़ाकोड़ी से नीचे' अर्थात् छठवें वर्ग के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे । किन्तु एक दूसरा मत है कि मनुष्य-पर्याप्तराशि बादाल वर्ग के (४२९४९६७२९६) अर्थात् द्विरूप वर्गधारा के पांचवे वर्गस्थान के घनप्रमाण है । धवलाकार
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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