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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
१. द्रव्यप्रमाण - द्रव्यप्रमाण के तीन भेद हैं, संख्यात, असंख्यात और अनन्त । जो संख्यान पंचेन्द्रियों का विषय है वह संख्यात है। उससे ऊपर जो अवधिज्ञान का विषय है वह असंख्यात है और उससे ऊपर जो केवल ज्ञान का विषय है वह अनन्त है।'
संख्यात के तीन भेद हैं, जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । गणना का आदि एक से माना जाता है। किन्तु एक केवल वस्तु की सत्ता को स्थापित करता है, भेद को सूचित नहीं करता । भेद की सूचना दो से प्रारंभ होती है, और इसीलिये दो को संख्यात का आदि माना है। २ । इस प्रकार जघन्य संख्यात दो है । उत्कृष्ट संख्यात आगे बतलाये जाने वाले जघन्य परीतासंख्यात से एक कम होता है । तथा इन दोनों छोरों के बीच जितनी भी संख्यायें पाई जाती हैं वे सब मध्यम संख्यात के भेद हैं।
___ असंख्यात के तीन भेद हैं, परीत, युक्त और असंख्यात, और इन तीनों में से प्रत्येकपुन: जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का होता है । जघन्य परीतासंख्यात का प्रमाण अनवस्था, शलाका, प्रतिशलाका और महाशलाका, ऐसे चार कुंडों को द्वीपसमूद्रों की गणनानुसार सरसों से भर भरकर निकालने का प्रकार बतलाया गया है, जिसके लिये त्रिलोकसागर गाथा १८-३५ देखिये । आगे बतलाये जाने वाले जघन्य युक्तासंख्यात से एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात का प्रमाण मिलता है, तथा जघन्य और उत्कृष्ट परीत के बीच की सब गणना मध्यम परीतासंख्यात के भेद रूप है।
जघन्य परीतासंख्यात के वर्गित -संवर्गित करने से अर्थात उसराशि को उतने ही वार गुणित प्रगुणित करने से जघन्य युक्तासंख्यात का प्रमाण प्राप्त होता है । आगे बतलाये जाने वाले जघन्य असंख्याता संख्यात से एक कम उत्कृष्ट युक्तासंख्यात का प्रमाण है और इन दोनों के बीच की सब गणना मध्यम युक्तासंख्यात के भेद हैं।
जघन्य युक्तासंख्यात का वर्ग (य ? य) जघन्य असंख्यातासंख्यात कहलाता है, तथा आगे बतलाये जाने वाले जघन्य परीतानन्त से एक कम उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है, और इन दोनों के बीच की सब गणना मध्यम असंख्यातासंख्यात के भेद रूप है।
जघन्य असंख्यातासंख्यात को तीन बार बर्गित संवर्गित करने से जो राशि उत्पन्न होती है उसमें धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, एक जीव और लोकाकाश, इनके प्रदेश तथा अप्रतिष्ठित
१ ज संखाणं पंचिंदियविसओ तं संखेजं णाम । तदो उवरि जं ओहिणाणविसओ तमसंखेज्जं णाम।
तदो उवरि जं केवलणाणस्सेव विसओ तमणंतं णाम । (पृ.२६७-२६८) २ एयादीया गणणा, वीयादीया हवेज्ज संखेज्ज' । (त्रि.सा, १६) जघन्यसंख्यातं दिसंख्यं तस्य भेदग्राहकत्वेन एकस्य तदभावात् । (गो. जी. जी. प्र. टीका ११८ गा.)