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________________ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका २२४ व मार्गणा स्थानों में जीवों का प्रमाण क्या है । स्वभावतः प्रश्न उत्पन्न होता है कि इस अत्यन्त अगाध विषय का वर्णन आचार्यों ने किस आधार पर किया है ? यह तो पूर्वभागों में बता ही आये हैं कि षट्खंडागम का बहुभाग विषय-ज्ञान महावीर भगवान की द्वादशांगवाणी अंगभूत चौदह पूर्वों में से द्वितीय आग्रायणीय पूर्व के कर्मप्रकृति नामक एक अधिकारविशेष में से लिया गया है । उसमें से भी द्रव्यप्रमाणानुगम की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है कर्म प्रकृतिपाहुड, अपरनाम वेदनाकृत्स्नपाहुड (वेयणकसिणपाहुड) के कृति, वेदना आदि चौबीस अधिकारों में छठवां अधिकार 'बंधन' है, जिसमें बंध का वर्णन किया गया है । इस बंधन के चार अर्थाधिकार हैं, बंध, बंधक, बंधनीय और बंधविधान । इनमें से बंधक नामक द्वितीय अधिकार के एकजीव की अपेक्षा स्वामित्व, एकजीवकी अपेक्षा काल, आदि ग्यारह अनुयोगद्वार हैं । इन ग्यारह अनुयोगद्वारों से पांचवां अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाण नाक है और वहीं से प्रकृत द्रव्य प्रमाणानुगम लिया गया है । (देखा षट्खंडागम, प्रथम भाग, पृ. १२५-१२६) यहां प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब जीवट्ठाण की सत, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व, ये छह प्ररूपणायें बंधविधान के प्रकृतिस्थानबंध नामक अवान्तर अधिकार के आठ अनुयोगद्वारों में से ली गई, तब यह द्रव्यप्रमाणानुगम भी वहीं से क्यों नहीं लिया, क्योंकि, वहां भी तो यह अनुयोगद्वार यथास्थान पाया जाता था ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि प्रकृतिस्थानबंध के द्रव्यानुयोगद्वार में 'इस बंधस्थान के बंधक जीव इतने हैं' ऐसा केवल सामान्य रूप से कथन किया गया है; किन्तु मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षा कथन नहीं किया गया । बंधक अधिकार में गुणस्थानों की अपेक्षा कथन किया गया है, वहां बतलाया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव इतने होते हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि जीव इतने हैं; इत्यादि । अतएव जीवट्ठाण में द्रव्यप्रमाणानुगम के लिये बंधक अधिकार का यही द्रव्यप्रमाणानुंगम उपयोगी सिद्ध हुआ । (देखो षट्. प्रथम भाग, पृ. १२९ ) प्रमाण का स्वरूप द्रव्यप्रमाणानुगम की उत्पत्ति बतलाने में जो कुछ कहा गया है उसी से स्पष्ट है कि यह भिन्न भिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में जीवों का प्रमाण बतलाया गया है । यह प्रमाण चार अपेक्षाओं से बतलाया गया है, द्रव्य, काल, क्षेत्र और भाव ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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