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________________ २१९ षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका के करने पर, जो उससे पहले नहीं की गई है, शंकाकार ने 'तथापि' से शंका का उत्थान किया है । (जैन संदेश, १५ फरवरी १९४०) बादर समाधान यहां पर 'तथापि' से शंका मान लेने पर 'शरीरस्थ स्थौल्यनिर्वर्तकं कर्म र-मुच्यते' इसे आगमिक परिभाषा मानना पड़ेगी। परन्तु यह आगमिक परिभाषा नहीं है । धवलाकार ने स्वयं इसके पहले 'न बादरशब्दोऽयं स्थूलपर्याय:' इत्यादि रूप से इसका निषेध कर दिया है । अत: शंकाकार के मुख से ही स्थूल और सूक्ष्म की परिभाषाओं का कहलाना ठीक है, ऐसा समझकर ही उन्हें शंका के साथ जोड़ा गया है । पृष्ठ २९७ १८. शंका - ‘क्रुद्धेरुपर्यभावात् ' पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है, उसके स्थान में 'क्रुद्धेरुत्पस्यभावात्' पाठ ठीक प्रतीत होता है। (जैन संदेश, १५ फरवरी १९४०) समाधान - उक्त पाठ के ग्रहण करने पर भी 'ऋद्धेरुपरि' इतने पद का अर्थ ऊपर से ही जोड़ना पड़ता है, और उस पाठक के लिए प्रतियों का आधार भी नहीं है । इसलिए हमने उपलब्ध पाठ को ज्यों का त्यों रख दिया था। हाल ही में धवला अ. पत्र २८५ पर एक अन्य प्रकरण सम्बंधी एक वाक्य मिला है, जो उक्त पाठ के संशोधन में अधिक सहायक है। वह इस प्रकार है - 'पमत्तेतेजा - हारं णत्थि, लद्धीए उवरि लद्धीणमभावा ।' इसके अनुसार उक्त पाठ को इस प्रकार सुधारना चाहिए 'क्रुद्धेरुपरि क्रुद्धेरभावात्' अथवा 'ऋद्धेरुपर्यभावात्' तदनुसार अर्थ भी इस प्रकार होगा - 'क्योंकि, एक ऋद्धि के ऊपर दूसरी ऋद्धि का अभाव है' । पृष्ठ ३०० १९. शंका - ६० वीं गाथा ( सूत्र ) का अर्थ करते हुए लिखा है कि 'तत्र कार्मणकाययोग: स्यादिति' । जिसका अर्थ आपने 'इषुगति को छोड़कर शेष तीनों विग्रहगतियों में कार्मणकाययोग होता है, ऐसा किया है। सो यहां प्रश्न होता है कि इषुगति में कौनसा कार्ययोग होता है ? ( नानकचंद जी, पत्र १.४.४० ) समाधान - इषुगति में औदारिकमिश्रकाय और वैक्रियिकमिश्रकाय, ये दो योग होते हैं, क्योंकि उपपातक्षेत्र के प्रति होने वाली ऋजुगति में जीव आहारक ही होता है ।
SR No.002281
Book TitleShatkhandagam ki Shastriya Bhumika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year2000
Total Pages640
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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